________________ कुनि एवं प्रस्तुति विद्यावाचस्पति श्री श्री 1008 आचार्य श्री सुभद्रमुनि जी महाराज जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित विशेषावश्यक भाष्य का मध्य-युगीन भारतीय साहित्य में उच्च स्थान है। इस अनुपम ग्रन्थ में ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, कर्मवाद, स्याद्वाद प्रभृति विविध वादों तथा धर्म और दर्शन का विशद व्याख्यान हुआ है। जैन और जैनेतर विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने वाला यह ग्रन्थ आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) रचित आवश्यक नियुक्ति के भाष्य के रूप में लिखा गया। कालान्तर में मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने इस ग्रन्थ पर शिष्यहिता नामक बृहद् वृत्ति की रचना की। विगत सहस्राब्दी के सभी मनीषी विद्वानों द्वारा प्रशंसित इस ग्रन्थराज पर श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री सुभद्र मुनि जी महाराज ने प्रथम बार राष्ट्र भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया है। हिन्दी भाषियों पर श्रद्धेय आचार्य श्री का यह महान उपकार है।। - श्रद्धेय आचार्य श्री श्रमण-परम्परा के एक तेजस्वी, यशस्वी और वर्चस्वी श्रमण हैं। इनके बहुआयामी व्यक्तित्व को कलम की परिधियों में समेट पाना संभव नहीं है। इन द्वारा सृजित, संपादित, व्याख्यायित एवं अनुदित विशाल वाङ्मय को देखकर यह स्वतः प्रमाणित होता है कि ये एक युगस्रष्टा दार्शनिक मुनि हैं।। . श्रद्धेय आचार्य श्री की दृष्टि परम उदार है, साथ ही सत्यान्वेषक भी। सत्यान्वेषण करते हुये इनकी दृष्टि में पर, पर नहीं होता।स्व, स्व नहीं होता।स्व-पर का परिबोध नष्ट हो जाना ही मुनित्व का मूलमंत्र है। स्व और पर युगपद हैं। 'पर' रहा तो 'स्व' अस्तित्व में रहता है। 'स्व' रहेगा, तब तक 'पर' मिट नहीं सकता।दर्शन जितना गूढ, जीवन-सा सरस और मुनित्व के आनन्द में रचा है, इनका व्यक्तित्व। यह व्यक्तित्व जितना आकर्षक है उतना ही स्नेहसिक्त भी है। व्यवहार में परम मृदु।आचार में परम निष्ठावान्। विचार में परम उदार। कटुता ने इनकी / हृदय-वसुधा पर कभी जन्म नहीं लिया है। इनका सम्पूर्ण जीवन-आचार, दर्शन का व्याख्याता है। -संपादक लोकार्पण : 8 फरवरी, 2009 मूल्य : रू. 500/ प्रकाशक मुनि मायाराम सम्बोधि प्रकाशन के.डी. ब्लॉक, पीतमपुरा, दिल्ली-110085