________________ सामण्णमेत्तगहणं, नेच्छइओ समयमोग्गहो पढमो। तत्तोऽणंतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥२८२॥ सो पुणरीहावायावेक्खाओवग्गहोत्ति उवयरिओ। एस विसेसावेक्खं, सामण्णं गेण्हए जेणं // 283 // तत्तोऽणंतरमीहा, तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स। इय सामण्ण-विसेसावेक्खा जावंतिमो भेओ॥२८४॥ [संस्कृतच्छाया:- सामान्यमात्रग्रहणं नैश्चयिकः समयमवग्रहः प्रथमः। ततोऽनन्तरमीहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः॥ स पुनरीहाऽपायापेक्षातोऽवग्रह इत्युपचरितः। एष्यविशेषापेक्षं सामान्यं गृह्यते येन // ततोऽनन्तरमीहा ततोऽपायश्च तद्विशेषस्य। इति सामान्यविशेषापेक्षा यावदन्तिमो भेदः॥]. व्याख्या- इहैकसमयमात्रमानो नैश्चयिको निरुपचरितः प्रथमोऽर्थावग्रहः। कथंभूतः?, इत्याह- सामान्यमात्रस्याऽव्यक्तनिर्देश्यस्य वस्तुनो ग्रहणं सामान्यवस्तुमात्रग्राहक इत्यर्थः, सामयिकानि हि ज्ञानादिवस्तूनि परमयोगिन एव निश्चयवेदिनोऽवगच्छन्तीति नैश्चयिकोऽयमुच्यते। // 282-284 // सामण्णमेत्तगहणं, नेच्छइओ समयमोग्गहो पढमो। तत्तोऽणंतरमीहियवत्थुविसे सस्स जोऽवाओ // सो पुणरीहावायावेक्खाओवग्गहोत्ति उवयरिओ। एस विसेसावेक्खं, सामण्णं गेण्हए जेणं // तत्तोऽणंतरमीहा, तत्तोऽवाओ य तव्विसेसस्स / इय सामण्ण-विसेसावेक्खा जावंतिमो भेओ || ... [(गाथा-अर्थ :) सामान्य मात्र ग्राहक एकसमयवर्ती प्रथम अवग्रह नैश्चयिक (अवग्रह) है, उसके बाद ईहित वस्तु के विशेष का ज्ञान (जो होता है, वह) अपाय है। किन्तु वह अपने भावी (पुनः होने वाली) ईहा व अपाय की अपेक्षा से औपचारिक अवग्रह (कहलाता) है। चूंकि वह अपने भावी 'विशेष' की अपेक्षा से 'सामान्य' का ग्रहण करता है, इसलिए उसके बाद उसके 'विशेष' की ईहा और उसका अपाय होता रहता है, इस प्रकार सामान्य व विशेष की अपेक्षा तब तक करते रहना चाहिए जब तक वस्तु का अन्तिम विशेष ज्ञात (सम्भव) हो।] व्याख्याः- एक समय मात्र काल तक रहने वाला (जो) प्रथम अर्थावग्रह (है, वह) निरूपचरित और नैश्चयिक (अर्थावग्रह) है। (प्रश्न-) वह कैसा है? उत्तर दिया- सामान्य मात्र एवं अव्यक्त - अनिर्देश्य वस्तु का ग्रहण, अर्थात् सामान्य मात्र वस्तु का ग्राहक होता है। चूंकि एकसमयमात्रवर्ती ज्ञान आदि पदार्थों को परम योगी निश्चय ज्ञाता ही जान पाते हैं, इसलिए इसे 'नैश्चयिक' कहा जाता है। -- विशेषावश्यक भाष्य ---