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________________ अथ छद्मस्थव्यवहारिभिरपि यो व्यवह्रियते, तं व्यावहारिकमुपचरितमर्थावग्रहं दर्शयति- 'तत्तो इत्यादि / ततो , . नैश्चयिकार्थावग्रहादनन्तरमीहितस्य वस्तुविशेषस्य योऽपायः स पुनर्भाविनीहाम्, अपायं चाऽपेक्ष्योपचरितोऽवग्रहोऽर्थावग्रह इति द्वितीयगाथायां संबन्धः। उपचारस्यैवाऽस्य निमित्तान्तरमाह- 'एस्सेत्यादि'। एष्यो भावी योऽन्यो विशेषस्तदपेक्षया येन कारणेनाऽयमपायोऽपि सन् सामान्यं गृह्णाति, यश्च सामान्यं गृह्णाति सोऽर्थावग्रहो यथा प्रथमो नैश्चयिकः। एतदिह तात्पर्यम्- प्रथमं नैश्चयिकेऽर्थावग्रहे रूपादिभ्योऽव्यावृत्तमव्यक्तं शब्दादिवस्तुसामान्यं गृहीतम्, ततस्तस्मिन्नीहिते सति शब्द एवायम्' इत्यादिनिश्चयरूपोऽपायो भवति। तदनन्तरं तु 'शब्दोऽयं किं शाङ्खः, शार्हो वा' इत्यादिशब्दविशेषविषया पुनरीहा प्रवर्तिष्यते, 'शाङ्ख एवाऽयं शब्दः' इत्यादिशब्दविशेषविषयोऽपायश्च यो भविष्यति तदपेक्षया 'शब्द एवाऽयम्' इति निश्चयः / प्रथमोऽपायोऽपि सन्नुपचारादर्थावग्रहो भण्यते, ईहाऽपायापेक्षात इति, अनेन चोपचारस्यैकं निमित्तं सूचितम्। 'शाङ्खोऽयं शब्दः, इत्याद्येष्यविशेषापेक्षया येनासौ सामान्यशब्दरूपं सामान्यं गृह्णातीति, अनेन तूपचारस्यैव द्वितीयं निमित्तमावेदितम्। तथाहि अब, छद्मस्थ व्यवहारी (संसारी) लोगों द्वारा जो व्यवहृत होता है, उस व्यावहारिक-उपचरित. अर्थावग्रह का निदर्शन कराया जा रहा है- (ततः इत्यादि)। उस नैश्चयिक अर्थावग्रह के बाद, ईहित वस्तु-विशेष का जो अपाय (निश्चय) है, वह- अपने बाद पुनः होने वाली ईहा व अपाय की अपेक्षा से -उपचरित अवग्रह 'अर्थावग्रह' है- इस प्रकार द्वितीय गाथा (के प्रथम चरण) में (पहली गाथा के दूसरे चरण का) सम्बन्ध है। इस उपचार के ही अन्य निमित को कह रहे हैं- (एष्यविषयापेक्षम् इत्यादि)। एष्य यानी भावी, जो अन्य विशेष (ज्ञान), उसकी अपेक्षा रखी जाय, तो इस कारण से यह अपाय भी (उपचारतः) सामान्य का ग्रहण (सामान्य को ग्रहण करने वाला माना जाता) है, और जो सामान्य का ग्राहक होता है, वह अर्थावग्रह (ही) होता है, प्रथम नैश्चयिक (अवग्रह) की तरह। तात्पर्य यह है- प्रथम नैश्चयिक अर्थावग्रह में रूप आदि से अव्यावृत्त (अर्थात् गृहीत 'शब्द' रूप आदि नहीं है- ऐसे बोध से रहित) व अव्यक्त शब्द आदि वस्तु-सामान्य का ग्रहण होता है, उसके बाद उसमें 'ईहा' होती है, फिर 'यह शब्द ही है' इत्यादि निश्चय रूप 'अपाय' होता है। उसके बाद तो 'यह शब्द शङ्ख का है या शृंगी वाद्य का' -इत्यादि शब्द-गत विशेष के सम्बन्ध में पुनः ईहा प्रवृत्त होती है, तब 'यह शब्द शङ्ख का ही है' इत्यादि शब्द-गत विशेष को ग्रहण करने वाला 'अपाय' ज्ञान भी जो होगा, उसकी अपेक्षा से 'यह शब्द ही है' -यह प्रथम निश्चयात्मक ज्ञान ‘अपाय' ज्ञान होते हुए भी भावी ईहा व अपाय की अपेक्षा से (ईहा-अपाय-अपेक्षातः) उपचारतः (उपचार का आश्रय लेते हुए) 'अर्थावग्रह' कहा जाता है। ('ईहा व अपाय की अपेक्षा से' -यह जो कथन है) इससे यहां उपचार का प्रथम निमित्त (हेतु) सूचित किया गया है। यह शब्द शङ्ख का है' -इत्यादि जो भावी विशेष ज्ञान होता है, उस की अपेक्षा से 'यह शब्द ही है' -यह जो (प्रथम) अपाय ज्ञान है, वह भी सामान्य- शब्दात्मक सामान्य का (ही) ग्रहण करता है- इस कथन से उपचार का यहां दसरा निमित्त सचित किय NAL 412 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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