________________ सुवर्णादिकं वस्तु, आदिशब्दाद् रत्न-दध्य-ऽक्षत-कुसुम-मङ्गलकलशादिपरिग्रहः, तदेज्ज्ञ-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यमङ्गलम्। ननु कथं तद् मङ्गलम्?, इत्याह- 'तं पीत्यादि' हुर्यस्मादर्थे, यस्मात् तदपि सुवर्णादिकं कस्यापि भावमङ्गलकारणत्वाद् मङ्गलं निर्दिष्टम्। यच्च कारणं तद् “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके, तद् द्रव्यम्" इत्यादिवचनाद् द्रव्यतयाऽपि व्यपदिश्यते, अतो द्रव्यमङ्गलं भवति। नोशब्दः सर्वप्रतिषेधे, आगमस्येह सर्वथैवाऽभावादिति। पूर्वं ज्ञ-भव्यशरीरयोः केवलमागमाभावापेक्षं द्रव्यमङ्गलत्वमुक्तम्, अत्र तु क्रियाऽभावमाश्रित्येति भावनीयम् // इति गाथाद्वयार्थः॥४७॥४८॥ तदेवं प्रतिपादितमागमतो नोआगमतश्च द्रव्यमङ्गलम्। अथ भावमङ्गलमुच्यते, तस्य च लक्षणं नाम-स्थापना-द्रव्याणामिव भाष्यकता केनापि कारणेन नोक्तम। तच्चेत्थमवगन्तव्यम "भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः।सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियाऽनुभवात्"॥इति। अत्राऽयमर्थः- भवनं विवक्षितरूपेण परिणमनं भावः, अथवा भवति विवक्षितरूपेण संपद्यते इति भावः। कः पुनरयम्?, इत्याह- वक्तुर्विवक्षिता इन्दन-ज्वलन-जीवनादिका या क्रिया तस्या अनुभूतिरनुभवनं तया युक्तो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तः, सर्वज्ञैः समाख्यातः। (=पूर्वोक्त) सब, ज्ञशरीर व भव्यशरीर से भिन्न (तीसरा) द्रव्यमङ्गल है। (प्रश्न-) वह (पूर्वोक्त वस्तुसमूह) द्रव्यमङ्गल कैसे है? इस (जिज्ञासा के समाधान) के लिए कहा- तदपि / 'यस्मात्' (हु) का अर्थ हैचूंकि / अर्थात् चूंकि वह सुवर्णादिक वस्तु भी किसी के लिए भावमङ्गल की कारण है, इसलिए उन्हें 'मङ्गल' कहा जाता है। लोक में 'जो भूत या भावी परिणामों का कारण होता है, वह 'द्रव्य' होता है'इस कथन के अनुसार, चूंकि व द्रव्यरूप में कही जाती हैं, अतः 'द्रव्यमङ्गल' हैं। 'नो'-शब्द सर्वथा प्रतिषेध का वाचक है, और यहां (उक्त द्रव्यमङ्गल में) 'आगम' का सर्वथा अभाव है। पहले ज्ञशरीर व भव्यशरीर -इन दोनों की द्रव्यमङ्गलता कही गई थी, वह केवल आगम के अभाव को दृष्टि में रखकर थी, किन्तु यहां क्रिया के अभाव को आश्रित कर (द्रव्यमङ्गलता) कही गई है- यह समझना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 47-48 // (भावमङ्गल) इस प्रकार, 'आगम से और नो-आगम से द्रव्यमङ्गल' का निरूपण हो गया / अब, भावमङ्गल का निरूपण किया जाएगा, उसका लक्षण, नाम-स्थापना-द्रव्य की तरह, भाष्यकार द्वारा किसी कारणवश नहीं कहा गया है। उसे इस प्रकार समझना चाहिए " जैसे 'इन्दन' (ऐश्वर्य) आदि क्रिया के अनुभव के कारण, इन्द्र आदि कहे जाते हैं, उसी प्रकार, सर्वज्ञों ने विवक्षित क्रिया की अनुभूति से युक्त को 'भाव' कहा है।' यहां (गाथा का शाब्दिक) अर्थ इस प्रकार है- 'भाव' से तात्पर्य है- होना, विवक्षित रूप में परिणमन / अथवा- जो होता है, विवक्षित रूप से संपन्न (परिणत) होता है। यह कौन है? समाधानवक्ता द्वारा विवक्षित इन्दन-ज्वलन आदि जो क्रिया, उसकी अनुभूति या अनुभवन, उससे युक्त, (जो) 'विवक्षितक्रियानुभूतियुक्त' है (वह 'भाव' है)- ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है। ---- विशेषावश्यक भाष्य --- Ma 80 --