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________________ द्वादशभिर्विशेषणैर्विशेषिताः। अत्राऽपि च पुरस्तादयमर्थो वक्ष्यते। ततः 'क्षिप्रं चिरेण वाऽवगृह्णाति' इतिविशेषणान्यथानुपपत्तेर्जायतेनैकसमयमात्रमान एवाऽर्थावग्रहः, किन्तु चिरकालिकोऽपि, न हि समयमात्रमानतयैकरूपे तस्मिन् क्षिप्रचिरग्रहणविशेषणमुपपद्यत इति भावः। तस्मादेतद्विशेषणबलादसंख्येयसमयमानोऽप्यर्थावग्रहो युज्यते। तथा, बहूनां श्रोतृणामविशेषेण प्राप्तिविषयस्थे शङ्खभेर्यादिबहुतूर्यनिर्घोषे क्षयोपशमवैचित्र्यात् कोऽप्यबहु अवगृह्णाति, सामान्यं समुदिततूर्यशब्दमात्रवमवगृह्णातीत्यर्थः। अन्यस्तु बह्रवगृह्णाति, शङ्ख-भेर्यादितूर्यशब्दान् भिन्नान् बहून् गृह्णातीत्यर्थः। अन्यस्तु स्त्री-पुरुषादिवाद्यत्व-स्निग्धमधुरत्वादिबहुविधविशेषविशिष्टत्वेन बहुविधमवगृह्णाति, अपरस्तबहुविधविशेषविशिष्टत्वादबहुविधमवगृह्णाति। अत एतस्माद् बहुविधाद्यनेकविकल्पनानात्ववशादवग्रहस्य क्वचित् सामान्यग्रहणम्, क्वचित् तु विशेषग्रहणम्, इत्युभयमप्यविरुद्धम् / अतो यत् सूत्रे 'तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए' इति वचनात 'शब्दः' इति विशेषविज्ञानमुपदिष्टम, तदप्यर्थावग्रहे युज्यते एव, इति केचित् // इति गाथार्थः॥२८॥ का अवग्रहण करता है" -इत्यादि ग्रन्थ (कथन) द्वारा अन्य शास्त्र में अवग्रह आदि को 12 विशेषणों से विशेषित किया गया है। इस ग्रन्थ में (भी) आगे इस पदार्थ का निरूपण किया जाएगा। इसलिए 'शीघ्र या देरी से अवग्रहण करता है' इस विशेषण की संगति अन्यथा नहीं हो सकती, इसलिए ज्ञात होता है कि अर्थावग्रह मात्र एक समय का नहीं होता, किन्तु चिर काल का भी होता है। तात्पर्य यह है कि एक समय काल प्रमाण वाले एकरूपता वाले उस (अर्थावग्रह) में शीघ्र, विलम्ब आदि विशेषणों से सम्पन्न होना संगत नहीं होता। इसलिए इन विशेषणों के कारण यही मानना उपयुक्त है कि अर्थावग्रह असंख्येय समय प्रमाण भी होता है। और, भेरी आदि बहुत से वाद्यों की आवाज, जो बहुत से श्रोताओं को विशेषता-रहित रूप में प्राप्ति-विषय हो रही होती है, उसमें भी कोई व्यक्ति क्षयोपशमविचित्रता के कारण 'अबहु' ग्रहण करता है, अर्थात् समुदित रूप से सामान्य वाद्य शब्द का अवग्रह करता है (उस अवग्रह में उसे अनेक वाद्यों की भिन्नता का ज्ञान नहीं होता, अपितु उसे वाद्य-भेद रहित सामान्य वाद्य शब्द मात्र सुनाई देता है)। किन्तु (वहीं) दूसरा व्यक्ति 'बहु' अवग्रहण करता है, अर्थात् शङ्ख, भेरी आदि बहुत से वाद्य-शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में ग्रहण करता है। किन्तु (इन दोनों से) अन्य व्यक्ति स्त्री द्वारा बजाया गया, पुरुष द्वारा बजाया गया, इसी तरह स्निग्धता, मधुरता आदि आदि बहत प्रकार के विशेषों (भेदों) के साथ बहुविध (वाद्य शब्द) का अवग्रहण करता है (अर्थात वह इन भिन्नताओं को भी जानता है कि यह वाद्य स्त्री द्वारा बजाया जा रहा है या पुरुष द्वारा, आवाज स्निग्ध है या रूखी है, मधुर है या कर्कश है)। किन्तु (इन तीनों से) अन्य व्यक्ति बहुत से भेदों की विशेषता से रहित 'अबहुविध' का अवग्रहण करता है। इसलिए इन (उपर्युक्त) बहु, बहुविध आदि अनेक विकल्पों की विविधता के अनुरूप ही अवग्रह का कहीं सामान्य ग्रहण, और कहीं विशेष ग्रहण होता है, ये दोनों ही निर्विरोध रूप से होते हैं। अतः सूत्र में "उसने 'शब्द' ऐसा अवग्रहण किया" -इस वचन द्वारा 'शब्द' इस रूप में होने वाले विशेष विज्ञान का जो निर्देश किया गया है, वह भी अर्थावग्रह में संगत होता है -ऐसा किन्हीं वादियों का मानना है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||280 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------407 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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