________________ प्रशब्दस्याऽव्ययत्वेनाऽनेकार्थद्योतकत्वात् प्रगतं जीवादिपदार्थव्यापकं, प्रधानं, प्रशस्तम्, आदौ वा वचनं प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् आदित्वं चाऽस्य विवक्षिततीर्थकरापेक्षया द्रष्टव्यम्, “नमस्तीर्थाय" इति वचनात् तीर्थकरेणाऽपि तन्नमस्करणादिति / अथवा जीवादितत्त्वं प्रवक्तीति प्रवचनमिति व्युत्पत्तेादशाङ्गम्, गणिपिटकोपयोगानन्यत्वाद् वा चतुर्विधश्रीश्रमणसङ्घोऽपि प्रवचनमुच्यते। कृतो विहितो. यथोक्तप्रवचनस्य प्रणामो नमस्कारो येनं मया सोऽहं कृतप्रवचनप्रणामः। किंस्वरूपमावश्यकानुयोगम्? इत्याह- 'चरण-गुणसंगहं ति', चर्यते मुमुक्षुभिरासेव्यत इति चरणम्, अथवा चर्यते गम्यते प्राप्यते भवोदधेः परकूलमनेनेति चरणं व्रत-श्रमणधर्मादयो मूलगुणाः, गुण्यन्ते संख्यायन्त इति गुणाः पिण्डविशुद्ध्याद्युत्तरगुणरूपाः, चरणं च गुणाश्च चरणगुणाः, अथवा चरणशब्देन सर्वतो देशतश्च चारित्रमिह विवक्षितम् / गुणशब्देन तु दर्शनज्ञाने, ततश्च चरणं च गुणौ च चरणगुणाः, तेषां संगृहीतिः संग्रहश्चरणगुणसंग्रहः, तम्। स च देशतोऽपि भवतीत्याह- सकलं परिपूर्णम् // आह- नन्वावश्यकानुयोगस्तावदावश्यकव्याख्यानम्, चरण-गुणसंग्रहस्तु ज्ञान-दर्शन-चारित्रसंगृहीतिरूपः, ततोऽत्यन्तं भिन्नाधिकरणत्वात् कथमनयोः सामानाधिकरण्यम?। जिससे या जिसमें जीवादि पदार्थों का प्रवचन किया जाता है। अथवा 'प्र' शब्द अव्यय होने से अनेक अर्थ का बोध कराता है, इसलिए 'प्र' यानी प्रधान, प्रशस्त, या आदि में (सर्वप्रथम) जो कहा जाय वह है- द्वादशाङ्ग गणिपिटक रूप प्रवचन / द्वादशाङ्ग का सर्वप्रथम (आदि में) कहा जाना विवक्षित तीर्थंकर की दृष्टि से संगत है, क्योंकि तीर्थंकरों ने भी 'नमः तीर्थाय' यह कह कर इस (तीर्थरूप प्रवचन) को नमस्कार किया है। अथवा जो जीवादितत्त्वों का निरूपण करता है, वह 'प्रवचन' है- . इस व्युत्पत्ति से 'द्वादशाङ्ग' तो प्रवचन है ही, उस द्वादशाङ्ग-गणिपिटक सम्बन्धी 'उपयोग' से अभिन्न होने कारण चतुर्विध श्रीश्रमणसंघ भी 'प्रवचन' है। उसे (द्वादशाङ्ग व चतुर्विध संघ को) नमस्कार किया है, ऐसा मैं (आवश्यक-अनुयोग का निरूपण करूंगा)। आवश्यक-अनुयोग का क्या स्वरूप है? इसलिए कहा- 'चरणगुणसंगह' / जिसका मुमुक्षु (मोक्षाभिलाषी लोग) आचरण करें, वह 'चरण' है। मुमुक्षुओं द्वारा संसार-सागर को पार (अंत) करने हेतु जो आचरित किया जाय, इसे जाना जाय या प्राप्त किया जाय, इस दृष्टि से व्रत व श्रमण-धर्म आदि मूलगुण ‘चरण' कहलाते हैं। गुण का अर्थ हैजिसका ‘गुणन' किया जाय, जिसे संख्या आदि में नियत किया जाय, इस दृष्टि से पिण्डविशुद्धि (भिक्षाचर्या-सम्बन्धी नियम) आदि उत्तरगुण 'गुण' हैं। चरण और गुण-इन का संग्रह ‘चरणगुणसंग्रह' हुआ। यहां ‘चरण' शब्द से देशचारित्र व सकलचारित्र-दोनों का ग्रहण विवक्षित समझना चाहिए। इसी प्रकार 'गुण' शब्द से यहां दर्शन व ज्ञान -इन दोनों का ग्रहण विवक्षित है। अतः चरण (यानी देशचारित्र व सर्वचारित्र) तथा गुण (यानी दर्शन व ज्ञान) -इनका संग्रह जो है, वह 'चरणगुणसंग्रह है। चूंकि वह 'देश' (आंशिक) रूप भी हो सकता है, उसका ग्रहण यहां नहीं है- इसे बताने के लिए कहा- 'सयलं' अर्थात सकल यानी परिपूर्ण। __ यहां पर प्रश्नकर्ता कहता है- [गाथा में 'आवश्यक अनुयोग' और 'चरणगुणसंग्रह' को अभिन्न (समान अधिकरण वाला) माना गया है। किन्तु] 'आवश्यक अनुयोग' तो आवश्यक का व्याख्यान हुआ, और ज्ञान-दर्शन-चारित्र के संग्रह को 'चरणगुणसंग्रह' कहा जाता है। इन दोनों के -------- विशेषावश्यक भाष्य