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________________ भक्तं पानकं च पूर्वोक्तैषणाद्वयाभिग्रहेणाऽलेपकृदेव गृह्णाति। एषणादिविषयं मुक्त्वा न केनापि सार्धं जल्पति, एकस्यां च वसतौ यद्यप्युत्कृष्टतः सप्त जिनकल्पिकाः प्रतिवसन्ति, तथापि परस्परं न भाषन्ते। उपसर्गपरीषहान् सर्वानपि सहत एव,रोगेषु चिकित्सा न कारयत्येव, तद्वेदनां तु सम्यगेव विषहते, आपातसंलोकादिदोषरहित एव स्थण्डिले उच्चारादीन करोति, नाऽस्थण्डिले अममत्तअपरकम्मा नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ। एमेव य थेराणं मोत्तूण पमजणं एक्कं // [अममत्वाऽपरिकर्माणो नियमाज्जिनकल्पिकानां वसतयः। एवमेव च स्थविराणां मुक्त्वा प्रमार्जनमेकम्॥] - इति वचनात् परिकर्मरहितायां वसतौ तिष्ठति, यधुपविशति तदा नियमादुत्कुटुक एव, न तु निषद्यायाम्, औपग्रहिकोपकरणस्यैवाऽभावादिति। मत्तकरि-व्याघ्र-सिंहादिके च संमखे समापतत्यन्मार्गगमनादिना ईर्यासमितिं न भिनत्ति इत्याद्यन्याऽपि जिनकल्पिकानां सामाचारी समयसमुद्रादवगन्तव्या। "ठिई चेव त्ति' तथा पूर्वोक्ते द्विविधेऽपि विहारे स्थितिः श्रुतसंहननादिका ज्ञातव्या, तथाहि- जिनकल्पिकस्य तावजघन्यतो .. नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षतस्त्वसंपूर्णानि दश पूर्वाणि श्रुतं भवति। प्रथमसंहननो वज्रकुड्यसमानाऽवष्टम्भश्चायं भवति। पूर्वोक्त दो एषणाओं के अभिग्रह के साथ ही, वह आहार-पानी लेता है। एषणा आदि विषयों के अलावा, वह किसी के साथ बातचीत नहीं करता। किसी एक वसति (घर) में यद्यपि उत्कृष्टतः (अधिकतम) सात जिनकल्पी रह सकते हैं, तथापि वे परस्पर बातचीत नहीं करते। सभी उपसर्गों व परीषहों को वह जिनकल्पी सहता ही है, रोग में चिकित्सा नहीं कराता, बल्कि उसकी वेदना को सम्यक्तया सहन करता है। वह आपात व संपात सम्बन्धी दोषों (मनुष्य, तिर्यश्च आदि के आवागमन एवं उनके दृष्टिविषय होने आदि) से रहित किसी स्थण्डिल (बंजर-अनुपयोगी) भूमि में ही उच्चार आदि (लघु नीति, बड़ी नीति आदि) करता है, अन्यत्र नहीं। ___ "जिनकल्पियों की वसतियां नियमतः ममत्व-रहित होती हैं- (यानी वे किसी विशेष व्यक्ति की संपत्ति नहीं समझी जातीं) तथा परिकर्म (प्रमार्जन, परिष्कार) से भी रहित होती हैं। स्थविरों की भी वसतियां वैसी ही होती हैं, किन्तु वहां प्रमार्जन-रूपी एक दोष अनुमत है, ममत्व दोष से तो वे भी रहित होती ही हैं।" उक्त वचन के अनुरूप परिकर्म (प्रमार्जन) से रहित वसति में ही जिनकल्पी (खड़ा) रहता है, यदि वह बैठता भी है तो नियमतः उकडूं (उत्कटिक आसन में ही) बैठता है, पालथी मारकर नहीं बैठता, क्योंकि उसके पास औपग्रहिक उपकरण (बिछाने हेतु, आसन, चटाई आदि) ही नहीं होते। कोई मदमत्त हाथी, व्याघ्र, सिंह आदि सामने आ जाएं, तो भी वह मार्ग बदल कर, ईर्यासमिति का भंग नहीं करता। इत्यादि अन्य भी जिनकल्पिक समाचारी का ज्ञान आगम-समुद्र से किया जा सकता है। ठिई चेव त्ति- पूर्वोक्त द्विविध विहार में अपक्षित श्रुत-संहनन आदि के विषय में भी कुछ और ज्ञातव्य है। जैसे कि जिनकल्पी के जघन्यतः (अर्थात् कम से कम) नवम पूर्व की तृतीय आचार वस्तु -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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