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________________ ओमो समराइणिओ अप्पतरसुओ य मा एणं तुब्भे।परिभवह एस तुम्हवि विसेसओ संपयं पुज्जो // 3 // अवमः समारान्निकोऽयम्, अल्पतरश्रुतश्च मा एनं यूयम्। परिभवत एष युष्माकमपि साम्प्रतं पूज्यः॥३॥] इत्यादिशिक्षां दत्त्वा गच्छाद् विनिर्गते चक्षुर्गोचरातीते तस्मिन्नानन्दिताः साधवः प्रतिनिवर्तन्ते। उक्तं च पक्खीय पत्तसहिओ सभंडगो वच्चए निरवइक्खो।धीरो घणवन्दाओचनीहरिओ विजुपुंजो व्व॥१॥ सीहम्मि व मन्दरकन्दराओ गच्छा विणिग्गए तम्मि। चक्खुविसयमइगए अइंति आणंदिआ साहू॥२॥ [पक्षीव पत्रसहितः सभाण्डकः (सपात्रक:) व्रजति निरपेक्षः। धीरो घनवृन्दाच्च निःसतो विद्युत्पुञ्ज इव // 1 // सिंहे इव मन्दरकन्दराया गच्छाद् विनिर्गते तस्मिन्। चक्षुर्विषयमतिगते च यान्ति आनन्दिताः साधवः॥२॥ आभोएउं खेत्तं निव्वाघाएण मासनिव्वाहिं। गन्तूण तत्थ विहरे साहू पडिवन्नजिणकप्पो // 3 // आभोग्य (विज्ञाय) क्षेत्र निर्व्याघातेन (विघ्नाभावेन)मासनिर्वाहि (मासनिर्वहणसमर्थं)गत्वा तत्र विहरेत् साधुः प्रतिपन्नजिनकल्पः॥३॥] एवं च प्रतिपन्नजिनकल्पो यत्र ग्रामे मासकल्पं चतुर्मासकं वा करिष्यति, तत्र षड् भागान् कल्पयति। ततश्च यत्र भागे एकस्मिन् दिने गोचरचर्यायां हिण्डितस्तत्र पुनरपि सप्तम एव दिवसे पर्यटति, भिक्षाचर्यां ग्रामान्तरगमनं च तृतीयपौरुष्यामेव करोति। चतुर्थपौरुषी च यत्राऽवगाहते, तत्र नियमादवतिष्ठते। (तदनन्तर अन्य साधुओं को उपदेश देता है-) “यह (नवस्थापित आचार्य) मेरे से छोटा है, या दीक्षा-पर्याय की दृष्टि से कनिष्ठ है, या फिर मेरी अपेक्षा यह अल्पश्रुत (अल्पज्ञानी) है- इस तरह (सोचकर) इस (आचार्य) का आप लोग पराभव (तिरस्कार या उपेक्षा) नहीं करना, क्योंकि अब यह आप सब के लिए विशेष रूप से पूज्य (बन गया) है // 3 // " ___ -इत्यादि शिक्षा देकर, वह जिनकल्पी मुनि गच्छ से निष्क्रमण कर (सब की) आंखों से ओझल हो जाता है और (उसके अनुयायी सभी) साधु आनन्दित होते हुए लौट आते हैं। कहा भी है• “पंख-सहित पक्षी की तरह मात्र उपकरण-सहित निरपेक्ष होकर, तथा मेघपटल से निकले हुए बिजली-पुञ्ज की तरह, या पर्वत-गुफा से निकलने वाले सिंह की तरह धीरता सम्पन्न वह (जिनकल्पी साधु) गच्छ से निकल कर, जब आंखों से ओझल हो जाता है तो (अनुयायी) साधु आनन्दित होते हैं // 1-2 // " __"तदनन्तर, जिनकल्प को अंगीकार कर चुका साधु विघ्न-बाधा से रहित तथा मासपर्यन्त व्यवहार-योग्य किसी क्षेत्र में जाकर विहार करता है // 3 // " - इस प्रकार, जिनकल्पी साधु जिस ग्राम में मासकल्प या चातुर्मास करता है, उस क्षेत्र को वह (कल्पित रूप से) छः भागों में बांटता है। जिस भाग में एक दिन गोचर-चर्या (आहार) हेतु भ्रमण किया था, वहां वह पुनः सातवें दिन ही आता है। चाहे दूसरे ग्राम में जाना हो या भिक्षाचर्या करनी हो, वह तीसरी पौरुषी में ही करता है। चौथी पौरुषी जहां हो जाय,वहीं वह नियमतः ठहर जाता है। --------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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