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________________ किमयं स्थाणुः, आहोस्वित् पुरुषः? इत्यनिश्चयात्मकं संशयमात्रं यदुत्पद्यते तदीहेति केचित् प्रतिपद्यन्ते / तदेतद् न घटते। कुतः? इत्याह-पद्यस्मात् कारणात्। 'तड ति' असौ संशयोऽज्ञानम्। भवतु तर्हाज्ञानमपीहा, इति चेत्, इत्याह- 'मईत्यादि' ममिसिलतपेदहा वर्तते। न च ज्ञानभेदस्याऽज्ञानरूपता युज्यते, एतदेवाह- 'कहमित्यादि / कथं केन प्रकारेणाऽज्ञानं युखम् नकशिदित्यर्थः केयमित्याह-'तइति / असौ मतिज्ञानांशरूपेहा, संशयस्य वस्त्वप्रतिपत्तिरूपत्वेनाऽज्ञानात्मकत्वात्, ईहायास्तु ज्ञानभेदत्वेन ज्ञानस्वभावत्वात्, ज्ञानाऽज्ञानयोश्च परस्परपरिहारेण स्थितत्वाद् नाऽज्ञानरूपस्य संशयस्य ज्ञानांशात्मकेहारूपत्वं युक्तमिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१८२॥ आह- ननु संशयेहयोः किं कश्चिद् विशेषोऽस्ति, येनेहारूपत्वं संशयस्य निषिध्यते? इत्याशङ्कय तयोः स्वरूपभेदमुपदर्शयन्नाह जमणेगत्थालंबणमपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं / सेय इव सव्वप्पयओ तं संसयरूवमन्नाणं॥१८३॥ व्याख्याः- यह स्थाणु (वृक्ष) है या कोई पुरुष? इस प्रकार का अनिश्चयात्मक संशय मात्र जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह 'ईहा' है- ऐसा कुछ (व्याख्याता) लोग प्रतिपादित करते हैं। किन्तु उनका वह कथन उपयुक्त नहीं ठहरता। (प्रश्न) क्यों? उत्तर दिया- (न तत्)। चूंकि वह संशय तो अज्ञान है। (प्रश्न-), ईहा अज्ञान हो तो हानि क्या है? इस शंका को दृष्टिगत रख कर कहा(मतिज्ञानांशः)। ईहा मतिज्ञान का अंश या भेद (ही) है। जो ज्ञान का (एक) भेद होता है, उसकी अज्ञानरूपता संगत नहीं हो सकती। इसी बात को कह रहे हैं- (कथम् अज्ञानम्)। ईहा ज्ञान का अज्ञान (संशय) होना कैसे, किस प्रकार से संगत हो सकता है? अर्थात् किसी भी प्रकार से संगत नहीं हो सकता। (प्रश्न-) आखिर वह ईहा क्या है? उत्तर दिया- (सा युक्तम्)। यह ईहा मतिज्ञान की अंश रूप है (जब कि संशय तो) वस्तु की अप्रतिपत्ति (अनुपलब्धि) रूप होने के कारण अज्ञान रूप है। ईहा ज्ञान का (ही) एक प्रकार है, क्योंकि वह ज्ञान स्वभावी है। ज्ञान या अज्ञान -ये दोनों (परस्परविरुद्ध होने के कारण) एक दूसरे को छोड़कर रहते हैं (जहां ज्ञानत्व है, वहां अज्ञानत्व नहीं रहेगा), इसलिए अज्ञान रूप संशय का ज्ञानांश-आत्मक ईहा रूप होना संगत नहीं हैहै। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 182 // .. "संशय व ईहा में आखिर क्या अन्तर है जो आप ईहा की संशयरूपता को नकार रहे हैं" -इस शंका को दृष्टि में रखकर -इन दोनों के स्वरूप-सम्बन्धी भेद का निरूपण करने जा रहे हैं // 183 // जमणेगत्थालंबणमपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं / सेय इव सव्वप्पयओ तं संसयरूवमन्नाणं // ----- विशेषावश्यक भाष्य -- ---- 267
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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