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________________ जइ पत्तं गेण्हेज उ, तग्गयमंजण-रओ-मलाईयं। पेच्छेज्ज, जंन पासइ अपत्तकारितओ चक्॥२१२॥ [संस्कृतच्छाया:- यदि प्राप्तं गृह्णीयात्, तद्गतमञ्जनरजोमलादिकम्। पश्येत्, यद् न पश्यति अप्राप्तकारि ततश्चक्षुः॥] यदि तु प्राप्तं विषयं चक्षुर्गृह्णीयादित्युच्यते, तदा तद्गतमात्मसंबद्धमञ्जन-रजो-मल-शलाकादिकं पश्येदवगच्छेत्, तस्य निर्विवादमेव तत्प्राप्तत्वेनोपलब्धेः, यस्माच्च तद् न पश्यति, ततोऽप्राप्तकारि चक्षुरिति स्थितम्। यद्यप्राप्यकारि चक्षुः, तहप्राप्तत्वाविशेषात् सर्वस्याऽप्यर्थस्याऽविशेषेण ग्राहकं स्यात्, न प्रतिनियतस्येति चेत् / न, ज्ञानदर्शनावरणादेस्तत्प्रतिबन्धकस्य सद्भावात, मनसा व्यभिचाराच्च / तथाहि- अप्राप्यकारित्वे सत्यपि नाऽविशेषेण सर्वार्थेष मनः प्रवर्तते, इन्द्रियाद्यप्रकाशितेषु सर्वथाऽदृष्टाऽश्रुतार्थेषु तत्प्रवृत्त्यदर्शनात् / इत्यलं प्रसङ्गेन // इति गाथार्थः // 212 // // 212 // जइ पत्तं गेण्हेज्ज उ, तग्गयमंजण-रओ-मलाईयं / पेच्छेज्ज, जं न पासइ अपत्तकारि तओ चक्खं // [(गाथा-अर्थ :) यदि (नेत्र किसी वस्तु को) प्राप्त (स्पृष्ट) करके ही ग्रहण करती होती (एवं देखती-जानती) तो वह (नेत्र में लगे हुए अञ्जन को या रज-कण या मैल आदि को भी जान जाती)। किन्तु वह (अअनादि को) नहीं देख पाती, इसलिए (भी) नेत्र अप्राप्यकारी है (प्राप्यकारी नहीं है)।] व्याख्याः- 'नेत्र किसी विष्य को प्राप्त (स्पृष्ट) करके (ही) जानती है'- यदि ऐसा कहा (या माना) जाता है तो उसी नेत्र में लगे हुए, नेत्र के साथ ही स्पृष्ट जो अञ्जन, रज, मल, (अअन लगाने की) शलाका आदि हैं, उन्हें नेत्र देखती-जानती होती, और अअन आदि नेत्र से स्पृष्ट होते हुए नेत्र में उपलब्ध होते हैं- इसमें कोई विवाद नहीं (हो सकता), चूंकि (अअनादि को) वह (नेत्र) नहीं देखती है, इसलिए नेत्र अप्राप्यकारी (ही) है- यह निश्चित हो जाता है। . (शंका-) नेत्र यदि अप्राप्यकारी है तो फिर (यदि वह सभी अप्राप्त विषयों को जानने में सक्षम है तो) उसे समस्त पदार्थों को -जो उसके लिए सम्भवतया अप्राप्त-अस्पृष्ट हैं- समान रूप से ग्रहण कर लेना चाहिए, न कि प्रतिनियत वस्तु को ही ग्रहण करना (अर्थात् देखना) चाहिए? (उत्तर-) ऐसा (कहना ठीक) नहीं। (समस्त वस्तुओं को वह इसलिए नहीं देख पाती) क्योंकि वहां ज्ञान-दर्शनावरण आदि (कर्म) उसके प्रतिबन्धक विद्यमान रहते हैं। दूसरी बात, (अप्राप्यकारी) मन में (भी तो समस्त पदार्थों के ज्ञान) का व्यभिचार (अभाव देखा जाता) है। इसके अतिरिक्त, यद्यपि मन अप्राप्यकारी है, फिर भी वह सभी पदार्थों में समानतया (तो) प्रवृत्त नहीं होता, अपितु जिन पदार्थों को इन्द्रियादि प्रकाशित नहीं करती है, और जो पदार्थ सर्वथा अदृष्ट या अश्रुत हैं, उनमें उस (मन) की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती (उसी प्रकार, ज्ञानावरणादि के सद्भाव के कारण तथा किन्हीं अभीष्ट पदार्थों को ही नेत्र देखती है, समस्त पदार्थों को नहीं)। अतः अधिक कहना अपेक्षित नहीं // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 212 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------311
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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