________________ तस्मात् किमिह स्थितम्?, इत्याह तंतू पडोवगारी न समत्तपडो य, समुदिया ते उ। सव्वे समत्तपडओ तह नाणं सव्वसमएसु॥ 203 // [संस्कृतच्छाया:- तन्तुः पटोपकारी न समस्तपटश्च समुदितास्ते। सर्वे समस्तपटकस्तथा ज्ञानं सर्वसमयेषु॥] यथैकस्तन्तुः पटोपकारी वर्तते, तमन्तरेणाऽपि समग्रस्य तस्याऽभावात्, न चासौ तन्तुरेतावता समस्तः पटो भवति, पटैकदेशत्वात् तस्य, समुदिताः पुनस्ते तन्तवः सर्वे समस्तपटव्यपदेशभाजो भवन्ति; तथाऽत्रापि सर्वेष्वपि समुदितेषु समयेषु ज्ञानं भवति, नैकस्मिंश्चरमसमये। ततश्चार्थावग्रहसमयात् पूर्वसमयेषु तदेव ज्ञानमतीवाऽस्फुटं व्यञ्जनावग्रह उच्यते; चरमसमये तु तदेव किञ्चित्स्फुटतरावस्थामापत्रमर्थावग्रह इति व्यपदिश्यते। अतो यद्यपि सुप्त-मत्त-मूर्छितादिज्ञानस्येव व्यक्तं तथाविधं व्यञ्जनावग्रहज्ञानसाधकं लिङ्गं नास्ति, तथापि यथोक्तयुक्तितो व्यञ्जनावग्रहे सिद्धं ज्ञानम् // इति गाथार्थः // 203 // तो अब निष्कर्ष क्या निकला? इसे (स्पष्टतया) कह रहे हैं 203 // तंतू पडोवगारी न समत्तपडो य, समुदिया ते उ। . सव्वे समत्तपडओ तह नाणं सव्वसमएसु // __ [(गाथा-अर्थ :) (एक-एक) तन्तु पट (के उत्पादन) में उपकारी होता है, तथापि वह (एकतन्तु) समस्त पट (रूप में व्यवहृत) नहीं हो जाता, अपितु वे सभी तन्तु समुदित होकर (ही) 'समस्त पट' (कहलाते) हैं. इसी प्रकार. (व्यञ्जनावग्रह के) समस्त समयों में (ही) ज्ञान है (न कि मात्र चरम समय में)] व्याख्याः- जैसे (प्रत्येक) तन्तु पट (के निर्माण में उस) का उपकारी होता है, क्योंकि एक के विना भी उस (पट) की समग्रता नहीं हो सकती, किन्तु ऐसा (समस्त पट का उपकारी) होने मात्र से वह (प्रत्येक तन्तु) समस्त पट नहीं हो जाता, क्योंकि वह पट का एकदेश ही है। और वे सभी तन्तु समुदित होकर 'समस्त पट' नाम धारण करते हैं, वैसे ही यहां (व्यञ्जनावग्रह में) भी सभी समुदित समयों में 'ज्ञान' स्थित है, न कि एक चरम समय में (ही)। इस प्रकार, अर्थावग्रह (होने) के समय से पूर्व के समयों में जो ज्ञान अत्यन्त अस्फुट (व्यक्त) रूप में विद्यमान है, उसी को व्यअनावग्रह कहा जाता है। चरम समय में तो वही (अस्फुट) ज्ञान थोड़ा अधिक स्फुट (स्पष्ट, व्यक्त) रूप को प्राप्त करता हुआ 'अर्थावग्रह'- इस नाम से कहा जाता है। अतः सोये हुए, मत्त (मद्य पीये हुए) व मूर्छित आदि (व्यक्तियों) में जो ज्ञान है उसके सद्भाव को सिद्ध करने वाले हेतु जितने व्यक्त (स्पष्ट) हैं, उतने (स्पष्ट) हेतु व्यञ्जनावग्रह की ज्ञानरूपता को सिद्ध करने वाले नहीं है। फिर भी, पूर्वोक्त युक्ति के आधार पर व्यअनावग्रह की ज्ञानरूपता सिद्ध हो (ही) जाती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ ||203 // 5 गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 203 // -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 297