________________ [संस्कृतच्छाया:- उभयं भावाक्षरतोऽनक्षरं भवेद् व्यञ्जनाक्षरतः। मतिज्ञानं सूत्रं पुनरुभयमपि अनक्षराऽक्षरतः॥] इहाऽक्षरं तावद् द्विविधम्-द्रव्याक्षरम्, भावाक्षरं च। तत्र द्रव्याक्षरं पुस्तकादिन्यस्ताऽकारादिरूपम्, ताल्वादिकारणजन्यः शब्दो वा, एतच्च व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनाक्षरमप्युच्यते। भावाक्षरं त्वन्तःस्फुरदकारादिवर्णज्ञानरूपम्। एवं च सति भावक्खरओ त्ति'। भावाक्षरमाश्रित्य मतिज्ञानं भवेत् / कथंभूतम्? इत्याह- 'उभयं ति' उभयरूपम्- अक्षरवत्, अनक्षरं चेत्यर्थः, मतिज्ञानभेदे ह्यवग्रहे भावाक्षरं नास्तीति तदनक्षरमुच्यते, ईहादिषु तु तद्भेदेषु तदस्तीति मतिज्ञानमक्षरवत् प्रतिपाद्यत इति भावः। 'अणक्खरं होज्ज वंजणक्खरओ त्ति'। व्यञ्जनाक्षरं द्रव्याक्षरमित्यनर्थान्तरम्, तदाश्रित्य मतिज्ञानमनक्षरं भवेत्, न हि मतिज्ञाने पुस्तकादिन्यस्ताकारादिकं शब्दो वा व्यञ्जनाक्षरं विद्यते, तस्य द्रव्यश्रुतत्वेन रूढत्वात, द्रव्यमतित्वेनाऽप्रसिद्धत्वादिति। सुत्तं पुणेत्यादि'। सूत्रं श्रुतज्ञानं, पुनरुभयमपिद्रव्यश्रुतम्, भावश्रुतं चेत्यर्थः, प्रत्येकमनक्षरतः, अक्षरतश्च भवेत्। इदमुक्तं भवति- "ऊससियं नीससियं निच्छूढं खासियं च छीयं च। निस्सिंघियमणुसारं अणक्खरं छेलियाईअं" // 1 // [उच्छवसितं निःश्वसितं निक्षिप्तं कासितं च क्षुतं च। नि:सिवितमनुस्वारमनक्षरं सेण्टितादिकम्॥] इत्यादिवचनाद् द्रव्यश्रुतमनक्षरम् [(गाथा-अर्थः) भावाक्षर के कारण मतिज्ञान (अनक्षर व साक्षर -इन) दोनों प्रकार का होता है और व्यञ्जनाक्षर के कारण वह (मतिज्ञान) अनक्षर होता है। सूत्र (द्रव्य व भाव -यह द्विविध श्रुतज्ञान) अनक्षर व साक्षर -इन रूपों में दोनों प्रकार का होता है।] व्याख्याः - यहां अक्षर के दो प्रकार हैं- द्रव्याक्षर व भावाक्षर। इनमें जो पुस्तक आदि में निहित अकार आदि रूप, अथवा तालु आदि कारणों से जन्य शब्द- यह द्रव्याक्षर है, इसे ही 'जिससे अर्थ की व्यञ्जना (अभिव्यक्ति) की जाए' इस व्युत्पत्ति के आधार पर 'व्यञ्जनाक्षर' भी कहा जाता है। और अन्तःकरण में स्फुरित (प्रतिभासित) जो अकारादि वर्ण-सम्बन्धी ज्ञान है, वह भावाक्षर है। (भावाक्षरतः)- इस प्रकार भावाक्षर के कारण (अर्थात् इस की अपेक्षा) से मतिज्ञान होता है। क्या होता है? उत्तर दिया- (उभयमपि) अक्षरयुक्त व अनक्षर-इन दोनों प्रकार का होता है। तात्पर्य यह है किं अवग्रह रूप जो मतिज्ञान (का) भेद है, उसमें भावाक्षर नहीं होता, इसलिए वह अनक्षर है, किन्तु ईहा आदि जो मतिज्ञान के (तीन) भेद हैं, उनमें भावाक्षर होता है, इसलिए वे साक्षर हो जाते हैं। (अनक्षरं भवेत)- व्यअनाक्षर कहें या द्रव्याक्षर कहें- एक ही बात है। उसके आश्रयण से (उसक अपेक्षा से) तो मतिज्ञान अनक्षर ही है, क्योंकि मतिज्ञान में पुस्तक आदि में प्रयुक्त अकार आदि व्यंजन का या शब्द रूप व्यंजनाक्षर का सद्भाव नहीं होता। वे व्यंजन या शब्द तो द्रव्यश्रुत रूप से रूढ़ हैं, द्रव्यमति रूप में तो अप्रसिद्ध हैं। (सूत्रं पुनः) सूत्र यानी श्रुतज्ञान, वह तो द्रव्यश्रुत व भावश्रुत- इन दोनों प्रकार का है, और उनमें से प्रत्येक भी अनक्षर व साक्षर- इस रूप से दो-दो प्रकार का है। तात्पर्य यह है कि "उच्छ्वास, निःश्वास, थूकना, खांसना, छींकना, सूंघना, खुरटि लेना, नाक से आवाज करना, आदि अनक्षर हैं” इत्यादि वचनों के आधार पर द्रव्यश्रुत अनक्षर होता है, किन्तु वही पुस्तक आदि में लिखित हो या शब्दरूप (परिणत) हो तो वह साक्षर भी होता है। भावश्रुत ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 249