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________________ आकार एव आकारमात्ररूपाण्येव / कानि?, इत्याह-मतीत्यादि, मतिश्च शब्दश्चेत्यादिद्वन्द्वः। तत्र मतिस्तावज्ज्ञेयाऽऽकारग्रहणपरिणतत्वादाकारवती, तदनाकारवत्त्वे तु 'नीलस्येदं संवेदनं न पीतादेः' इति नैयत्यं न स्यात्, नियामकाभावात्, नीलाद्याकारो हि नियामकः, यदा च स नेष्यते तदा 'नीलग्राहिणीयं मतिर्न पीतादिग्राहिणी' इति कथं व्यवस्थाप्यते?, विशेषाभावात्, तस्मादाकारवत्येव मतिरभ्युपगन्तव्या। शब्दोऽपि पौद्गलिकत्वादाकारवानेव। घटादिकं वस्त्वाकारवत्त्वेन प्रत्यक्षसिद्धमेव। क्रियाऽप्युत्क्षेपणाऽवक्षेपणादिका क्रियावतोऽनन्यत्वादाकारवत्येव। फलमपि कुम्भकारादिक्रियासाध्यं घटादिकं मृत्पिण्डादिवस्तुपर्यायरूपत्वादाकारवदेव। अभिधानमपि शब्दः, स च पौद्गलिकत्वादाकारवानित्युक्तमेव। तस्माद् यदस्ति तत् . सर्वमाकारमयमेव, यत्त्वनाकारं तद् नास्त्येव, वन्ध्यापुत्रादिरूपत्वात् तस्य // इति गाथार्थः // 64 // अथ प्रयोगद्वारेणाऽनाकारं वस्तु निराचिकीर्षुराह- . न पराणुमयं वत्थु आगाराऽभावाओ खपुष्कं व। उवलंभ-व्ववहाराऽभावाओ नाणागारं च॥६५॥ व्याख्याः- आकाररूप हैं यानी आकार मात्र रूप वाली हैं। वे कौन हैं? (उत्तर-) मति इत्यादि / मति, शब्द इत्यादि में द्वन्द्व समास है। इनमें मति यानी ज्ञेय पदार्थ का आकार ग्रहण कर (तदाकार) परिणत होने वाली (सविकल्पक बुद्धि), यदि उसे निराकार माना जाय तो यह संवेदन नील का है, पीत का नहीं- इस प्रकार निश्चयात्मकता नहीं हो पाएगी, क्योंकि कोई (अन्य) नियामक नहीं है, यदि नियामक है तो वह नीलादि आकार ही है। जब उस (आकारवत्ता) को न माना जाय तो 'यह बुद्धि नीलग्राहिणी है, पीतादिग्राहिणी नहीं है' इसकी व्यवस्था किस प्रकार सम्भव हो पाएगी? क्योंकि (आकार के अभाव में) कोई 'विशेष' तो (कुछ वहां) होगा नहीं, इसलिए मति (बुद्धि) को साकार ही मानना पड़ेगा। शब्द भी पौद्गलिक होने से आकारवान् है ही। घट आदि वस्तु आकारवान् है- यह प्रत्यक्षसिद्ध ही है। उत्प्रेक्षण (ऊपर फेंकना) व अवक्षेपण (बिखेर देना) आदि- क्रिया भी क्रियावान् से अभिन्न होने से आकारवान् ही हैं। कुम्भकार आदि की क्रिया से होने वाला घट आदि रूप फल भी, मृत्पिण्ड आदि (कारणभूत) वस्तु का पर्याय होने से आकारवान् ही है- यह पहले कह चुके हैं। इस प्रकार, जो (कुछ भी) है, वह सब आकारवान् ही है और जो अनाकार (आकारशून्य) है, वह वन्ध्यापुत्र आदि की तरह असद् रूप है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 64 // / अब प्रयोग (अनुमान) के माध्यम से अनाकार वस्तु (के सद्भाव) का निराकरण करने हेतु कह रहे हैं // 65 // न पराणुमयं वत्थु, आगाराऽभावाओ खपुष्पं व। उवलंभ-व्यवहाराऽभावाओ नाणागारं च // A 100 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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