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________________ [संस्कृतच्छाया:-अवग्रह ईहाऽपायश्च धारणैव भवन्ति चत्वारि / आभिनिबोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि समासेन // 178 // ] रूप-रसादिभेदरनिर्देश्यस्याऽव्यक्तस्वरूपस्य सामान्यार्थस्याऽवग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः। तेनाऽवगृहीतस्यार्थस्य भेदविचारणं वक्ष्यमाणगत्या विशेषान्वेषणमीहा। तयेहितस्यैवाऽर्थस्य व्यवसायस्तद्विशेषनिश्चयोऽपायः। चशब्दोऽवग्रहादीनां पृथक् पृथक् स्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः, तेनैतदुक्तं भवति- अवग्रहादेरीहादयः पर्याया न भवन्ति, पृथग्भेदवाचकत्वादिति। निश्चितस्यैव वस्तुनोऽविच्युत्यादिरूपेण धरणं धारणा। एवकारः क्रमद्योतनपरः, अवग्रहादीनामुपन्यासस्याऽयमेव क्रमो नान्यः, अवगृहीतस्यैवेहनात्, ईहितस्यैव निश्चयात्, निश्चितस्यैव धारणादिति। एवमेतान्याभिनिबोधिकज्ञानस्य चत्वार्येव भेदवस्तूनि समासेन संक्षेपेण भवन्ति, विस्तरतस्त्वष्टाविंशत्यादिभेदभिन्नमिदं वक्ष्यत इति भावः। तत्र भिद्यन्ते परस्परमिति भेदा विशेषास्त एव वस्तूनि भेदवस्तूनीति समासः // इति गाथार्थः // 178 // [(गाथा-अर्थ :) संक्षेप में आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा -ये चार भेद रूप हैं।] व्याख्याः-रूप रस आदि भेदों से अनिर्दिष्ट, अव्यक्त स्वरूप 'सामान्य' अर्थ का जो ग्रहणज्ञान है, उसे 'अवगृह' कहा जाता है। उस 'अवग्रह' से गृहीत-ज्ञात अर्थ के भेद के सम्बन्ध में जो विचार होता है, आगे कहे जाने वाली रीति से किये जाने वाले 'विशेष' के अन्वेषण को 'ईहा' कहते हैं। उस ईहा से ईहित पदार्थ का जो निर्णय- (अर्थात पदार्थ का जो) विशेषात्मक निश्चय होता है, वह 'अपाय' है। (गाथा में प्रयुक्त) 'च' पद अवग्रह आदि (प्रत्येक) के पृथक्-पृथक् स्वातन्त्र्य का द्योतन (संकेत) करता है। इस प्रकार, उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि अवग्रह के ईहा आदि पर्याय नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पृथक्-पृथक् कहा गया है। निश्चित रूप से ज्ञात वस्तु का ही 'अविच्युति' आदि रूप से (निरन्तर के साथ) धारण करना 'धारणा' होती है। गाथा में 'एव' पद इनमें (एक निश्चित) क्रम को द्योतित कर रहा है, अतः अवग्रहादि को उपस्थापित करने का यही क्रम है, इनमें अन्य कोई (दूसरा, भिन्न) क्रम मान्य नहीं है, क्योंकि अवग्रह-गृहीत की ही ईहा होती है, ईहित वस्तु का ही निश्चय (अपाय) होता है और निश्चित रूप से जानी गई वस्तु की ही धारणा होती है। - इस प्रकार, आभिनिबोधिक ज्ञान के संक्षेप में ये चार ही भेद होते हैं। विस्तार करने की दृष्टि से तो आगे 28 भेदों को कहा जाएगा- यह भाव है। भेद और वस्तु -इन दो पदों का समास कर 'भेदवस्तु' शब्द बना है। इसका अर्थ है- भेद यानी परस्पर भेद रखने वाले जो 'विशेष' हैं, वे ही वस्तुस्वरूप हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हआ॥ 178 // ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 261 -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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