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________________ कस्य पुनरिदमावश्यकं योग्यमादिशन्ति मुनयः?, इत्याह- भव्यस्य मुक्तिगमनयोग्यस्य जन्तोः। स च कश्चिद् दूरभव्योऽसंजातमोक्षमार्गाभिलाषोऽपि भवति, तद्व्यवच्छेदार्थमाह- मोक्षमार्गः सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रूपस्तमुत्तरोत्तरविशुद्धिरूपमभिलषितुं शीलमस्य स तथा तस्य। अयं चैवंविधोऽपरिणतगुरूपदेशोऽपि स्यात्, तन्निरासार्थमाह- स्थितः कर्तव्यतया परिणतो गुरूपदेशो यस्याऽसौ स्थितगुरूपदेशस्तस्य। किं यथायोग्यमुपदिशन्ति?, इत्याह- बालग्लानयोरिवाऽऽहारं यथोपदिशन्ति, भिषज इति गम्यते। ___इदमुक्तं भवति- यथाऽऽदौ बालस्य कोमल-मधुरादिकम्, ग्लानस्य च पेया-मुद्ग-यूषादिकं तत्कालोचितमुत्तरोत्तरबलपुष्टयादिहेतुमाहारं योग्यं भिषजः समुपदिशन्ति, तथेहापि भव्यादिविशेषणविशिष्टस्य जन्तोरादाविदमेवाऽऽवश्यकमुत्तरोत्तरगुणवृद्धिहेतुभूतं योग्यमुपदिशन्ति तीर्थकरगणधरा इति। आवश्यकस्य चादौ शिष्यप्रदानावसरे प्रतिपादिते तदनुयोगस्याऽसौ प्रतिपादित एव द्रष्टव्यः, तयोरेकत्वस्याऽनन्तरमेवाऽऽख्यातत्वात् // इति गाथार्थः॥४॥ - मुनि लोग इस आवश्यक-सम्बन्धी (ज्ञान के ) दान को किस व्यक्ति के लिए (देय रूप में) योग्य (उचित) बताते हैं? इसलिए (इस जिज्ञासा के समाधान-हेतु) कहा- भव्यस्य / भव्य अर्थात् मुक्ति प्राप्ति के योग्य प्राणी को (इसके ज्ञान का दान उचित बताया गया है)। चूंकि अभी जिसे मोक्षमार्ग की अभिलाषा नहीं जागृत हुई हो, ऐसा कोई 'दूरभव्य' भी हो सकता है, (वह यहां ग्राह्य नहीं है, इसलिए) उसके निराकरण-हेतु कहा- मोक्षमार्गाभिलाषी। सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रूपी जो मोक्षमार्ग है, उसे उत्तरोत्तर विशुद्धता के साथ प्राप्त करने का शील (अर्थात् स्वभाव) जिसका है, ऐसा भव्य, उसीको (इसका ज्ञान-दान देना उचित है)। उक्त भव्य भी ऐसा हो सकता है जो गुरु के उपदेश के अनुरूप परिणत नहीं हो पाया हो (अर्थात् स्वयं को ढाल नहीं पाया हो), ऐसे भव्य का भी निराकरण करने हेतु कहा- (स्थितगुरूपदेशस्य) जिसने गुरु के उपदेश को कर्तव्य मानकर आचरण में परिणत (क्रियान्वित) किया हो, उसे ही (इसका ज्ञान-दान देना उचित है)। इसे किस प्रकार यथोचित बताते हैं? अतः कहा- जैसे बाल व ग्लान (रोगी) के लिए आहार (को देने) का उपदेश (निर्देश) देते हैं, (कौन निर्देश देते हैं- इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु) ऐसा 'वैद्य' निर्देश देते हैं- ऐसा समझना चाहिए। . (समस्त गाथा में) यह कहा गया है कि जैसे वैद्य लोग किसी बालक के लिए कोमल व मधुर आदि आहार को, तथा ग्लान (रोगी) के लिए तरल पदार्थ- मूंग का रसा आदि देने को, उनके लिए समयोचित उत्तरोत्तर बल-पोषण आदि की दृष्टि से योग्य आहार बताते हैं, प्रस्तुत प्रसङ्ग में उसी प्रकार तीर्थंकर व गणधरादि भी भव्य आदि विशेषणों से युक्त प्राणी के लिए, उत्तरोत्तर गुण-वृद्धि की दृष्टि से इस आवश्यक को ही (ज्ञान-दान के) योग्य (उचित) मानते हैं। यह आवश्यक (उपर्युक्त योग्यता वाले) शिष्य को सर्वप्रथम देना चाहिए-इस तथ्य का प्रतिपादन कर दिया गया, तब इस (आवश्यक) के अनुयोग का भी प्रथम प्रतिपादन कर्तव्य है- यह (स्वतः) ज्ञात हो जाता है, क्योंकि इन (आवश्यक व अनुयोग) दोनों का एकत्व पूर्व में ही कहा जा चुका है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 4 // Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 15 5052
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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