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________________ अथ 'को वा भावसुयंसो' इत्यादि चिन्त्यते- तत्र भावश्रुतमुभयश्रुताद् द्रव्यश्रुताच्चाऽनन्तगुणम्, एतस्मात्तूभयश्रुतं द्रव्यश्रुतं चानन्ततमे भागे वर्तत इति भावनीयम्, वाचः क्रमवर्तित्वात्, आयुषश्च परिमितत्वात् सर्वेषामपि भावश्रुतविषयभूतानामनामनन्ततममेव भागं वक्ता भाषत इति भावः। ततश्च भावश्रुतस्याऽनन्ततम एव भागो द्रव्यश्रुतत्वेनोभयश्रुतत्वेन च परिणमतीत्युक्तं भवति। एतच्च सर्वमनन्तरमेव भाष्यकार: स्वयमेव विस्तरतो भणिष्यतीत्यलं विस्तरेण। आह- ननु यानुपयुक्तो भाषते तदुभयश्रुतम्, यांस्त्वनुपयुक्तो वक्ति तद्रव्यश्रुतमित्युक्तम्, यांस्तर्हि न भाषते, केवलं श्रुतबुद्ध्या . पश्यत्येव, तत्रापि द्रव्यश्रुतरूपता, उभयश्रुतरूपता च किमिति नेष्यते?, इत्याशक्याह- 'इयरत्थ वीत्याधुत्तरार्धं"जे भासइ तं सुयं' इत्युक्ते तत्प्रतियोगिस्वरूपमभाषमाणावस्थाभावि भावश्रुतमेव इतरत्र शब्दवाच्यं भवति / ततश्चायमर्थ:- द्रव्यश्रुतोभयश्रुताभ्यामितरत्रापि भावश्रुते भवेत् श्रुतं-द्रव्यश्रुतरूपता, उभयश्रुतरूपता वा भवेदित्यर्थः। यदि किं स्यात्?, इत्याह- उपलम्भनमुपलब्धिस्तत्समं तत्प्रमाणं यदि भणेत् -यावद् वस्तुनिकुरम्बमुपलभते तावत्सर्वमुपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यदि वदेदित्यर्थः, एतच्च नास्ति, श्रुतोपलब्ध्या उपलब्धानामनामनन्तत्वात्, वाचः क्रमवर्तित्वात्, आयुषश्च परिमितत्वादिति। तस्मादभिलाप्यानां श्रुतोपलब्ध्या समुपलब्धानां भावानां मध्यात् सर्वेणाऽपि जन्मनाऽनन्ततममेव भागं भाषते वक्ता, अतस्तत्रैवाऽनुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतरूपता, उपयुक्तस्य तु वदत उभयश्रुतरूपता भवेत्, नेतरत्र भावश्रुते, भाषणस्यैवाऽसंभवात् // इति पूर्वगतगाथार्थः॥ 128 // अब, ‘भावश्रुत का कौन सा अंश' इत्यादि का विचार किया जा रहा है। उन (सभी श्रुतों) में द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत की तुलना में भावश्रुत अनन्तगुना अधिक है, अतः इन दोनों (द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत) की स्थिति भावश्रुत के अनन्तवें भाग जितनी है- यह जानना चाहिए, (ऐसा इसलिए है) क्योंकि वाणी क्रम से प्रवृत्त होती है और आयु परिमित काल की ही होती है, अतः भावश्रुत के विषयभूत पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही वक्ता बोलता (यानी बोल पाता) है- यह तात्पर्य है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि भावश्रुत का अनन्तवां भाग ही द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत रूप से परिणत होता है- यह भाव है। इन सब का निरूपण भाष्यकार स्वयं विस्तार से आगे करेंगे, अतः अधिक विस्तार से कहने की जरूरत नहीं है। (प्रश्न-) जिन्हें उपयोगसहित होकर बोलता है, वह उभयश्रुत है और जिन्हें उपयोग रहित होकर बोलता है, वह द्रव्यश्रुत है। किन्तु जिन्हें नहीं बोलता, केवल श्रुतबुद्धि से देखता जानता ही है, वहां भी द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत क्यों नहीं कहते? इस शंका को दृष्टिगत रखकर कहा- (इतरत्र अपि)। अर्थात् जिन्हें बोलता है वह श्रुत है -ऐसा आगे कहा गया है, इसलिए उसका प्रतियोगी (विपक्षी) स्वरूप वाला- बिना बोले रहा हुआ भावश्रुत यहां 'इतरत्र' (अन्यत्र) स्वरूप पद से ग्राह्य है। तब (सम्पूर्ण वाक्यनियोजित) अर्थ इस प्रकार होगा- द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत से अन्यत्र यानी भावश्रुत में भी, भाव व (द्रव्य) श्रुत हो सकते हैं, अर्थात् द्रव्यश्रुत व उभयश्रुत का सद्भाव हो सकता है। परन्तु ऐसा कब हो सकता है? उत्तर दिया- (उपलब्धिसमम्) / उपलब्धि, उपलम्भन के समान प्रमाण को बोल पाए, अर्थात् जितने वस्तुसमूह को जाने, उतने समस्त वस्तु-समूह को उपयोग-रहित या a 202 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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