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________________ तत् सुप्तादीनां ज्ञानमस्तित्वेन लक्ष्यते। कुतः?,स्वप्नायमानवचनदानादिचेष्टाभ्यः।सुप्तादयोऽपि हि स्वप्नायमानाद्यवस्थायां केचित् किमपि भाषमाणा दृश्यन्ते, शब्दिताश्चौघतो वाचं प्रयच्छन्ति, संकोच-विकोचाऽङ्गभङ्ग-जृम्भित-कूजित-कण्डूयनादिचेष्टाश्च कुर्वन्ति, न च तास्ते तदा वेदयन्ते, नापि च प्रबुद्धाः स्मरन्ति / तर्हि कथं तच्चेष्टाभ्यस्तेषां ज्ञानमस्तीति लक्ष्यते?, इत्याह-'जमित्यादि। यद् यस्मात् कारणाद् नाऽमतिपूर्वास्ता वचनादिचेष्टा विद्यन्ते, किन्तु मतिपूर्विका एव, अन्यथा काष्ठादीनामपि तत्प्रसङ्गात्; अतस्ताभ्यस्तत् तेषामस्तीति लक्ष्यत एव, धूमादग्निरिव॥ इति गाथार्थः // 198 // आह- नन्वात्मीयमपि चेष्टितं किं कश्चिद् न जानाति, येन सुप्तादीनां स्वचेष्टिताऽसंवेदनमुच्यते?, इत्याशङ्क्याह जग्गन्तो वि न जाणइ छउमत्थो हिययगोयरं सव्वं / जं तज्झवसाणाइं जमसंखेजाइं दिवसेण॥१९९॥ [संस्कृतच्छाया:- जाग्रदपि न जानाति छद्मस्थो हृदयगोचरं सर्वम् / यत् तदध्यवसानानि यदसंख्येयानि दिवसेन // ] व्याख्याः- (तत्) उस ज्ञान का अस्तित्व सोये हुए आदि व्यक्तियों में भी परिलक्षित होता है। (प्रश्न-) कैसे? (उत्तर-) स्वप्न में की गई प्रत्युत्तर देने आदि की चेष्टाओं से (ज्ञान का अस्तित्व परिलक्षित होता है)। चूंकि सोये हुए आदि कुछ लोग भी स्वप्न-दर्शन की स्थिति में कुछ बोलते हुए दिखाई देते हैं। (अगर कोई) उन्हें आवाज दे तो वे (प्रत्युत्तर रूप में) 'ओघ' से (सामान्यतया, संक्षेप में अस्पष्टतया, बुदबुदाते हुए) प्रत्युत्तर भी देते हैं। (सोते हुए ही) देह को सिकोडना, फैलाना, अंगड़ाई लेना, जंभाई लेना, आवाज करना या शरीर खुजलाना आदि चेष्टाएं भी करते हैं, किन्तु उन (क्रियाओं) का न तो वे संवेदन करते हैं और न ही जागने पर उन्हें स्मरण (ही) कर पाते हैं। (प्रश्न-) तब : * चेष्टाओं से उन (व्यक्तियों) में ज्ञान है- ऐसा कैसे ज्ञात होता है? उत्तर दे रहे हैं (यत् न अमतिपूर्वा) चूंकि वे वचन-दानादि की चेष्टाएं मतिज्ञान के बिना नहीं होती (हो सकतीं), अपितु मतिज्ञान पूर्वक ही होती हैं, अन्यथा (निर्जीव) काठ (लकड़ी) में भी वे चेष्टाएं हो जानी चाहिएं। अतः उन क्रियाओं के आधार पर उन (सोये हुए आदि लोगों) में ज्ञान (का सद्भाव) लक्षित (अनुमान-गम्य, निर्णीत) उसी प्रकार होता है जैसे धूएं से आग का सद्भाव लक्षित (निर्णीत) होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 198 // (पुनः) किसी (शंकाकार) ने कहा- 'आप जो सोए हुए आदि व्यक्तियों को अपनी ही चेष्टाओं का संवेदन होना बता रहे हैं, किन्तु क्या कोई ऐसा भी व्यक्ति हो सकता है जो स्वकीय चेष्टाओं का ज्ञान (संवेदन) नहीं करता? इस आशंका को दृष्टिगत रखकर भाष्यकार कह रहे हैं ||199 // जग्गन्तो वि न जाणइ छउमत्यो हिययगोयरं सव्वं / जं तज्झवसाणाइं जमसंखेजाइं दिवसेण // [(गाथा-अर्थ :) (सोये हुए की तो बात ही क्या,) जागता हुआ छद्मस्थ व्यक्ति भी अपने हृदय में उठने वाले समस्त भावों (अध्यवसानों) को नहीं जान पाता, क्योंकि वे अध्यवसान पूरे दिन में असंख्येयं (संख्यातीत) हो जाते हैं।] -- 291 --------- विशेषावश्यक भाष्य
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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