________________ परः सासूयमाह- ननु कथं 'ज्ञानम्, अव्यक्तं च' इत्युच्यते? तमः-प्रकाशाद्यभिधानवद् विरुद्धत्वाद् नेदं वक्तुं युज्यत इति भावः / अत्रोत्तरमनन्तरमेवोक्तम्- एकतेजोऽवयवप्रकाशवत् सूक्ष्मत्वादव्यक्तम्। अथ पुनरप्युच्यते- सुप्त-मत्त-मूर्च्छितादीनां सूक्ष्मबोधवदव्यक्तं ज्ञानमुच्यत इति न दोषः। सुप्तादीनां तदात्मीयज्ञानं स्वसंविदितं भविष्यतीति चेत्। नैतदेवमित्याह- सुप्तादयः स्वयमपि। तदात्मीयविज्ञानं नाऽवबुध्यन्ते, न संवेदयन्ति, अतिसूक्ष्मत्वात्।। इति गाथार्थः // 197 // आह- यदि तैरपि सुप्तादिभिस्तदात्मीयज्ञानं न संवेद्यते, तर्हि तत् तेषामस्तीत्येतत् कथं लक्ष्यते?, इत्याह लक्खिजइ तं सिमिणायमाणवयणदाणाइचिट्ठाहिं। जं नामइपुव्वाओ विजते वयणचिट्ठाओ॥१९८॥ [संस्कृतच्छाया:- लक्ष्यते तत् स्वप्नायमानवचनदानादिचेष्टाभ्यः। यद् नाऽमतिपूर्वा विद्यन्ते वचनचेष्टाः॥] / व्याख्याः- विरोधी (पूर्वपक्षी या आक्षेपकर्ता) असूया (गुणों में भी दोषारोपण की वृत्ति) के साथ कह रहा है- (कथमव्यक्तम्)। 'ज्ञान है, और वह अव्यक्त भी है' ऐसा कैसे कह सकते हैं? तात्पर्य यह है, कि जैसे अन्धकार व प्रकाश का एक साथ कथन विरुद्ध होने के कारण उपयुक्त नहीं होता, उसी तरह (ज्ञान होना और अव्यक्त रहना -दोनों का युगपत् कथन, प्रकाश-अंधकार की तरह विरोधपूर्ण है)। इस सम्बन्ध में प्रत्युत्तर तो अभी पीछे ही (गाथा 196 के व्याख्यान में) दिया जा चुका है कि एक तेजोऽवयव (छोटी चिनगारी) रूप प्रकाश की तरह वह सूक्ष्म होने के कारण अव्यक्त है। . (फिर भी) अब पुनः (प्रत्युत्तर) कहा जा रहा है- सोये हुए, नशे में रहे, तथा मूर्च्छित आदि व्यक्तियों को सूक्ष्म ज्ञान जैसा अव्यक्त ज्ञान का होना कहा ही जाता है, अतः (पूर्वोक्त अंधकार व प्रकाश जैसा ज्ञान व अव्यक्त में) विरोध दोष नहीं है। (शंका-) सोये हुए आदि व्यक्तियों को जो सूक्ष्म ज्ञान है, वह तो उन्हें स्वसंविदित होता होगा, (किन्तु व्यञ्जनावग्रह की स्थिति में तो ज्ञान का स्वसंवेदन नहीं होता। अतः दृष्टान्त व दार्टान्त की एकरूपता, अनुरूपता नहीं है)। (उत्तर-) ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सोये हुए आदि व्यक्तियों में भी ज्ञान इतना सूक्ष्म होता है कि वे स्वयं भी स्वकीय ज्ञान का बोध या स्वसंवेदन नहीं कर पाते // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 197 // (पुनः शंका-) यदि उन सोये हुए आदि व्यक्तियों को अपने ज्ञान का स्वसंवदेन नहीं होता, तो वहां ज्ञान का अस्तित्व है- यह कैसे मान लिया जाता है? इस शंका का उत्तर भाष्यकार दे रहे हैं // 198 // लक्खिज्जइ तं सिमिणायमाणवयणदाणाइचिठ्ठाहिं। जं नामइपुव्वाओ विजंते वयणचिट्ठाओ // [(गाथा-अर्थ :) सोये हुए व्यक्ति द्वारा वचन-दान (प्रत्युत्तर देना) आदि चेष्टाओं से यह परिलक्षित होता है कि बोलने (आदि) की चेष्टाएं मतिज्ञान पूर्वक हुए बिना नहीं हो सकतीं।] May 290 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------