________________ इदमुक्तं भवति- श्रोत्रघ्राणाभ्यां सह संबद्धा एव शब्द-गन्धाः स्वकार्यभूतं बाधिर्याधुपघातम्, अनुग्रहं वा जनयितुमलम्, नाऽन्यथा, सर्वस्याऽपि तज्जननप्राप्तेरतिप्रसङ्गात् // इति गाथार्थः // 208 // तदेवं स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्राणां प्राप्यकारित्वं समर्थितम्; सांप्रतं 'नयण-मणोवजिंदियभेयाओ' इत्यादिना सूचितं नयन-मनसोरप्राप्यकारित्वमभिधित्सुर्नयनस्य तावदाह लोयणमपत्तविसयं मणो व्व जमणुग्गहाइसुण्णं ति। जल-सूरालोयाइसुदीसंति अणुग्गह-विघाया॥२०९॥ [संस्कृतच्छाया:- लोचनमप्राप्तविषयं मन इव यदनुग्रहादिशून्यमिति / जलसूरालोकादिषु दृश्येते अनुग्रह-विघातौ // ] भी श्रोत्र व घ्राण इन्द्रिय के वे अनुग्रह या उपघात होते हैं- ऐसी मान्यता में (दोष की संभावना) बता रहे हैं- (बाधिर्यपूतिः)। बहिरापन और पूति -जो एक प्रकार का रोग है जिसमें नाक फूल जाती है, और नासिका-अर्श (रोग) आदि -इस प्रकार के उपघात व अनुग्रह का इन्द्रियों में होना कैसे संगतिपूर्ण होगा? (शंका-) क्या होने पर (असंगति होगी)? उत्तर दिया- असम्बद्ध होने पर। अर्थात् उस उपघात या अनुग्रह के हेतुभूत शब्द व गंध रूप वस्तु के (श्रोत्र व घ्राण से) असम्बद्ध ही रहने पर -यह अर्थ फलित होता है। तात्पर्य यह है कि श्रोत्र व घ्राण के साथ शब्द व गन्ध सम्बद्ध होकर ही, बहिरापन रूपी उपघात या अनुग्रह आदि कार्य को करने में समर्थ होते हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि (यदि असम्बद्ध वस्तु का भी इन्द्रियों पर सुप्रभाव या दुष्प्रभाव होना माना जाय) तब सभी (सम्बद्ध या असम्बद्ध वस्तुओं द्वारा उस (उपघात आदि) के होने से अतिप्रसंग (दोष) होने लगेगा |यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 208 // नेत्र की अप्राप्यकारिता (नेत्र में अनुग्रह-उपघात नहीं) इस प्रकार, स्पर्शन (त्वचा), रसना, घ्राण व श्रोत्र (-इन चार) इन्द्रियों की प्राप्यकारिता का समर्थन किया गया। अब ‘नयनमनोवर्जेन्द्रिय' इत्यादि (पूर्वोक्त गा. 204) द्वारा जो नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता सूचित हुई है, उसका निरूपण करने के इच्छुक भाष्यकार (प्रथमतः) नेत्र (इन्द्रिय) के विषय में कथन कर रहे हैं // 209 // लोयणमपत्तविसयं मणो ब्व जमणुग्गहाइसुण्णं ति। जल-सूरालोयाइसु दीसंति अणुग्गह-विघाया // [(गाथा-अर्थ :) मन की तरह ही नेत्र भी (रूप) विषय को प्राप्त (स्पृष्ट) नहीं करते हैं, क्योंकि वे (नेत्र) इन्द्रियां अनुग्रह (व विघात) आदि से रहित रहती हैं। (शंका- आपका कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि) जल व सूर (सूर्य) को देखने से (नेत्र इन्द्रिय का क्रमशः) अनुग्रह व विघात होता देखा जाता है।] / 04-------- विशेषावश्यक भाष्य