________________ अर्थात् जो अल्प अक्षर वाला, असंदिग्ध, सारयुक्त, सर्वतोमुखी (विविध अनुयोगानुसार व्याख्यानसमर्थ) हो तथा (अपेक्षित अक्षरों से) अधिक अक्षरों से युक्त नहीं हो, उसी को सूत्रकारों ने निर्दोष सूत्र कहा है। तात्पर्य है कि सूत्र में न ज्यादा कहा जाता है, और न इतना कम कहा जाता है कि अभिधेय अर्थ ही अभिव्यक्त न हो। उसमें संक्षिप्त रूप में जो कह दिया जाता है, उसे विविध आयामों से, दृष्टियों से, व्याख्यायित कर विस्तार दिया जा सकता है। इसी दृष्टि से आगमों में सूत्र शब्द के अनेक निर्वचन भी किये गये हैं। जैसे- जो सूचित करता है, जो स्यूत करता हैं (जो सूई की तरह बिखरे फूलों को एक धागे में पिरोता है), जो अर्थ का प्रसव करता है (अर्थात् एक या अनेक अर्थों का जन्म देता है), और जो अर्थ का अनुसरण करता है (अर्थात् अभीष्ट प्रकरण-संगत अभिधेय के अनुरूप अर्थप्रतिपादन करता है) : नेरुत्तियाइं तस्स उ, सूयइ, सिव्वइ, तहेव सुवइ त्ति। अणुसरति त्तिय भेया, तस्स उ नामा इमा हुंति।' उपर्युक्त सूत्र-परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि सूत्र 'गागर में सागर' की उक्ति को चरितार्थ करता है। जैसे एक छोटे से बीज से अनेकानेक विस्तृत शाखाओं वाला महान् वृक्ष अस्तित्व में आता है, वैसे ही सूत्र के आधार पर विशालकाय ग्रन्थों का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार सूत्र की गूढार्थता व महार्थता ही उसकी विशेषता सिद्ध होती है। आवश्यक सूत्र' में भी निश्चित ही 'सूत्र' का उपर्युक्त निर्वचन फलित हुआ है। यही कारण है कि इस पर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ आवश्यक नियुक्ति (लगभग 1600 गाथाओं में), उस के प्रथम अध्ययन सामायिक' पर विशालकाय विशेषावश्यक भाष्य (लगभग 3600 गाथाओं में) तथा उस पर मलधारी हेमचंद्र कृत शिष्यहिता नामक (28000 श्रीक प्रमाण) व्याख्या - इस प्रकार अतिविशाल साहित्य-भण्डार निर्मित हो गया है। 'आवश्यक' का अर्थ है- अवश्य करणीय। संयम-साधना के अंगभूत जो अनुष्ठान आवश्यकरूप से, वस्तुतः अनिवार्यतया करणीय होते हैं, वे 'आवश्यक' (अनुष्ठान) में परिगणित हैं। श्रमणचर्या में जो मूलतः सहायक होती हैं, जिनका ज्ञान होना प्रत्येक श्रमण को मूलतः (प्रारम्भिक रूप में) अपेक्षित है, उन आवश्यक' क्रियाओं का निरूपण इस सूत्र में है। संभवतः इस दृष्टि से भावप्रभसूरी ने (जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लोक-30 की स्वोपज्ञ वृत्ति) आवश्यक को चार मूलसूत्रों में परिगणित किया है। आवश्यक के पर्यायवाची शब्द हैं- अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, न्याय, आराधना, मार्ग, अध्ययनषट्कवर्ग (द्र. अनुयोगद्वार सूत्र)। भाष्यकार के मत में आवश्यक' ज्ञानक्रियामय आचरण है अत: मोक्षप्राप्ति का कारण है। जैसे कुशल वैद्य उचित आहार (या पथ्य) की अनुमति देता है, वैसे ही- भगवान् ने साधकों के लिए आवश्यक क्रियाओं का विधान किया है (द्र. भाष्य गा. 3-4 एवं बृहद्वृत्ति)। 'आवश्यक' की अंगभूत छ: क्रियाएं हैं- (1) सामायिक (2) चतुर्विंशति स्तव (3) वन्दन (4) प्रतिक्रमण, (5) कायोत्सर्ग, और (6) प्रत्याख्यान / इन्हीं छ: 1. (बृहत्कल्पभाष्य, गा. 314) R@ @ R R 808680@R [30] R@ @ @20@Re80@Re80@R