________________ एतदुक्तं भवति-स्थाणुरेवाऽयमित्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवायः, अपायो वेति, चशब्द एवकारार्थः, व्यवसायमेवाऽवायम्, अपायं वा हुवत इत्यर्थः। धृतिर्षरणम्, अर्थानाम्' इति वर्तते, अपायेन विनिश्चितस्यैव वस्तुनोऽविच्युति-स्मृति-वासनारूपं धरणमेव धारणा सक्त इत्यर्थः। पुन:शब्दस्याऽवधारणार्थत्वाद् ब्रुवत इत्यनेन शास्त्रस्य पारतन्त्र्यमुक्तम्- इत्थं तीर्थंकर-गणधरा ब्रुवत इति // अन्ये त्वेवं पठन्ति- "अत्थाणं उग्गहणम्मि उग्गहो" इत्यादि। तत्राऽर्थानामवग्रहणे सत्यवग्रहो नाम मतिभेद इत्येवं ब्रुवते, एवमीहादिष्वपि योज्यम्, भावार्थस्तु पूर्ववदेव। अथवा प्राकृतशैल्याऽर्थवशाद् विभक्तिपरिणाम इति सप्तमी द्वितीयार्थे द्रष्टव्या॥ इति गाथार्थः॥१७९॥ अथैतदेवाऽवग्रहादिस्वरूपं भाष्यकारो विवृण्वन्नाह तात्पर्य यह है कि यह वृक्ष (स्थाणु) ही है -इस प्रकार का जो अवधारणात्मक (निर्णयात्मक) अनुभव है, वह अंपाय या अवाय है। 'च' शब्द यहां 'ही' अर्थ में प्रयुक्त है। अतः अर्थ हुआ कि जो व्यवसाय (निर्णय) है, उसे ही अपाय या अवाय कहते हैं। (तदनन्तर) पदार्थों की धृति, या उनका धरण होता है, अर्थात् अपाय द्वारा निश्चित की गई वस्तु के ही अविच्छिन्न रूप से स्मृति-वासना रूप धारण को ही 'धारणा' कहते हैं। 'पुनः' शब्द यहां अवधारणात्मक 'ही' अर्थ का वाचक है। 'कहते हैं। इस कथन से प्रकृत शास्त्र की परतन्त्रता (अ-स्वच्छन्दता) का संकेत किया गया है, अर्थात् तीर्थंकर व गणधरों ने (ही) इसी प्रकार कहा है- [अर्थात् अवग्रह आदि के जो स्वरूप यहां बताये गये हैं, उन्हें ग्रन्थकार * ने अपनी ओर से नहीं कहा है। किन्तु तीर्थंकर व गणधर देवों ने ही इसी प्रकार प्रतिपादित किया है, और ग्रन्थकार द्वारा किया गया निरूपण उन्हीं का अनुसरण है, न कि स्वमतिपरिकल्पित / इस दृष्टि से ग्रन्थकार के निरूपण में तीर्थंकरादि की परतन्त्रता संगत है।] - अन्य (कुछ आचार्य) गाथा को इस प्रकार-पढ़ते हैं- 'अर्थानाम् अवग्रहणे अवग्रहः', अर्थात् पदार्थों का अवग्रह होने पर जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान का ही 'अवग्रह' नाम का एक भेद होता है। इसी तरह, ईहा, आदि के निरूपण में भी समझ लेना चाहिए (अर्थात् पदार्थों की ईहा होने पर ईहा, निश्चय होने पर अपाय, धरण (या धारण) होने पर धारणा -इस प्रकार कथन कर लेना चाहिए)। इस (दूसरी तरह से किये गये निरूपण) में भी भावार्थ तो पूर्ववत् ही है (भावार्थ की भिन्नता नहीं है)। अथवा 'प्राकृत' व्याकरण में अर्थ के औचित्य के अनुरूप विभक्ति-परिणाम (भी) होता है, अतः यहां द्वितीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है- ऐसा समझ लेना चाहिए। [तब ‘अवग्रहणे अवग्रहः' इस कथन में प्रयुक्त सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति कर पढा जाना चाहिए- 'अर्थानाम् अवग्रहणं अवग्रहः', भावार्थ तो पूर्ववत् होगा- अर्थात् ‘पदार्थों के अवग्रहण को 'अवग्रह' कहते हैं'।] || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 179 // अवग्रहादि के इस (पूर्वोक्त) स्वरूप को भाष्यकार स्पष्ट करने हेतु (गाथा) कह रहे हैं ------ विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 263