________________ [संस्कृतच्छाया:- भावार्थान्तरभूतं किं द्रव्यं नाम, भाव एवायम्। भवनं प्रतिक्षणमेव भावापत्तिर्विपत्तिश्च // ] भावेभ्यः पर्यायेभ्योऽर्थान्तरभूतं भिन्नं किं नाम द्रव्यम्, येनोच्यते- 'दव्वपरिणाममित्तमित्यादि'?। ननु भाव एवाऽयं यदिदं दृश्यते त्रिभुवनेऽपि वस्तुनिकुरम्बमिति / यदि हि किञ्चिदनादिकालीनमवस्थितं सद् वस्तु वस्त्वन्तरारम्भे व्याप्रियेत तदा न्याय्या स्यादियं कल्पना, यावता प्रतिक्षणं भवनमेवाऽनुभूयते। किमुक्तं भवति?, इत्याह- भावस्यैकस्य पर्यायस्याऽऽपत्तिरुद्भूतिः, अपरस्य तु विपत्तिर्विनाशः। "न निहाणगया भग्गा पुञ्जो नत्थि अणागए। निव्वुया नेय चिटुंति आरग्गे सरसवोवमा"[न निधानगता भग्ना पुञ्जो नास्त्यनागते।निर्वृत्ता नैव तिष्ठन्ति आराने सर्षपोपमाः॥]॥ इति वचनात् पूर्वस्य क्षणस्य निवृत्तिः, अपरस्य तूत्पत्तिरित्यर्थः॥ . इति गाथार्थः॥६९॥ आह- ननु ये भावस्याऽऽपत्ति-विपत्ती प्रोच्येते, ते तावद्धत्वन्तरमपेक्ष्य भवतः, यच्च हेत्वन्तरमपेक्षते तदेवाऽवस्थितं कारणं, तदेव द्रव्यम्, अतो 'भावत्थंतरभूअं किं दव्वं' इत्यादिनाऽयुक्तमेव द्रव्यमपाक्रियते, इत्याशङ्क्याह [(गाथा-अर्थः) भाव से पृथक् या भिन्न द्रव्य (नामक पदार्थ) क्या है? (वस्तुतः) वह (द्रव्य) तो 'भाव' ही है। 'भाव' यानी होना अर्थात् प्रतिक्षण भाव की उत्पत्ति और विनाश का होना।] व्याख्याः- 'द्रव्य-परिणाम मात्र को छोड़कर आकार क्या है?'- इस प्रकार (पूर्वोक्त गाथा 66 में) आप जो कह रहे हैं, तो यह बताएं कि भाव यानी पर्यायों से पृथक् या भिन्न 'द्रव्य' क्या है? (अर्थात् है ही नहीं)। वस्तुतः जो कुछ भी त्रिभुवन में वस्तु-समूह दिखाई देता है, वह 'भाव' रूप ही है (अन्य कुछ नहीं)। कोई अनादिकालीन विद्यमान सद्वस्तु यदि किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति का व्यापार करती, तब तो उक्त कल्पना न्यायसंगत होती, किन्तु प्रतिक्षण होना यानी भाव का ही सद्भाव अनुभव में आता है। कहने का भाव यह है कि प्रत्येक समय यही अनुभव में आता है कि एक भाव की उत्पत्ति होती है तो अन्य भाव का विनाश होता है (अतः भाव से अतिरिक्त कोई द्रव्य जैसी वस्तु नहीं है)। __ “मूल द्रव्य नष्ट नहीं होती, भावी काल में (पदार्थों का) पुंज (एकत्रित) नहीं हो पाता, क्योंकि आरा मशीन के अग्र भाग पर स्थित सरसों के दानों की तरह (पर्याय) सत्ता में आते ही, उत्पन्न होते ही, (अगले ही क्षण) नष्ट हो जाते है"। इस वचन के अनुसार, पूर्व क्षण की जो निवृत्ति है, वही अन्य क्षण की उत्पत्ति है- यह भाव है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 69 // (यहां भाववादी के समक्ष द्रव्यनयवादी शंका उपस्थित कर रहा है-) जो भाव (पर्याय) की उत्पत्ति व विनाश आप बता रहे हैं, वे दोनों अन्य हेतु की अपेक्षा रखते हैं, और वह अन्य हेतु 'कारण' और वही द्रव्य है। इसलिए "भाव से भिन्न या पृथक् अवस्था वाला द्रव्य क्या है?"- ऐसा आप (भाववादी) की ओर से जो द्रव्य (की सत्ता) का निराकरण किया जा रहा है. वह यक्तिसंगत नहीं है इस शंका को मन में रखकर (भाववादी) इस प्रकार कह रहा हैMa 106 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------