Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 491
________________ इदमुक्तं भवति- अवग्रहे तावत् सामान्यमात्रग्राहकत्वाद् द्वितीयवस्त्वपेक्षाऽपि न विद्यते, ईहा पुनरुभयवस्त्ववलम्बिनी, तत्र पुरोदृश्यमानस्य वस्तुनो यत् प्रतिपक्षभूतं वस्तु तत्प्रायो बहुभिर्धमैः प्रत्यासन्नं ग्राह्यम्, न पुनरत्यन्तविलक्षणम्, पुरो हि मन्दमन्दप्रकाशे दूराद् दृश्यमाने स्थाण्वादौ 'किमयं स्थाणुः, पुरुषो वा' इत्येवमेवेहा प्रवर्तते, ऊर्ध्वस्थानारोह-परिणाहतुल्यतादिभिः प्रायो बहुभिर्धमैं: पुरुषस्य स्थाणुप्रत्यासन्नत्वादिति। 'किमयं स्थाणुः, उष्ट्रो वा?' इत्येवं तु न प्रवर्तते, उष्ट्रस्य स्थाण्वपेक्षया प्रायोऽत्यन्तविलक्षणत्वात्। अत एव सामान्यमात्रग्राहि-अवग्रहोऽत्रादौ न कृतः, किन्तु 'ईहादीनि' इत्येवमुक्तम्, उभयवस्त्ववलम्बित्वेन ईहाया एव 'पायं पच्चासन्नत्तणेण' इति विशेषणस्य सफलत्वात्। अपायस्याऽपि 'स्थाणुरेवाऽयं, न पुरुषः' इत्यादिरूपेण प्रवृत्तेः किञ्चिद् विशेषणस्य सफलत्वादादिशब्दोऽप्यविरुद्धः॥ इति गाथार्थः // 292 // इह 'किं शब्द:, अशब्दो वा?' इति श्रोत्रेन्द्रियस्य प्रत्यासन्नवस्तूपदर्शनं कृतमेव। अथाऽशेषचक्षुरादीन्द्रियाणां विषयभूतानि प्रत्यासन्नवस्तूनि क्रमेण प्रदर्शयति अगृह्यमाण पुरुष आदि के मध्य प्रायः अनेक ऐसे धर्म हैं जिनका आधार उनमें सादृश्य होता है, उस आधार पर ईहा आदि ज्ञेय (ग्राह्य) होते हैं किन्तु अत्यन्त विलक्षण वृक्ष और ऊंट में ईहा आदि ज्ञेय (ग्राह्य) नहीं होते हैं। तात्पर्य यह है- अवग्रह चूंकि सामान्य मात्र का ग्राहक होता है, अतः उसमें द्वितीय वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु ईहा उभय वस्तु का अवलम्बन करती है। वहां जो वस्तु सामने दिखाई पड़ रही होती है, उसकी प्रतिपक्ष वस्तु जो प्रायः अनेक धर्मों से प्रत्यासन्न (सदृश) होती है, वही ग्राह्य होती है, न कि अत्यन्त विलक्षण (विरुद्ध) वस्तु ग्राह्य होती है। (जैसे-) सामने मन्द-मन्द रोशनी में दूर से ढूंठ वृक्ष आदि दिखाई पड़ा, उसमें 'यह कोई ढूंठ वृक्ष है या पुरुष है' इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त होती है, क्योंकि ऊंचाई, ऊपरी उभार, चौड़ाई आदि समानता आदि बहुत से धर्मों में प्रायः ढूंठ वृक्ष व पुरुष के साथ सादृश्य होता है। (इसलिए वहां) 'यह ढूंठ वृक्ष है या ऊंट है' इस प्रकार की ईहा प्रवृत्त नहीं होती, क्योंकि लूंठ वृक्ष की दृष्टि से ऊंट की प्रायः अत्यन्त विलक्षणता (भिन्नता, अ-सदृशता) होती है। इसीलिए सामान्यमात्रग्राही अवग्रह को यहां (ईहा आदि से) पूर्व में उल्लिखित नहीं किया, किन्तु 'ईहा आदि' यही कहा, क्योंकि उभय वस्तु को अवलम्बन करने वाली ईहा के लिए ही 'प्रायः प्रत्यासन्नता (सदृशता) के आधार पर' यह विशेषण सफल (सार्थक) होता है (अवग्रह के लिए नहीं)। अपाय की भी 'यह ढूंठ वृक्ष ही है, पुरुष नहीं' -इस रूप में प्रवृत्ति होती है, चूंकि वहां भी 'प्रत्यासन्नता आदि' विशेषण सफल है, अतः 'आदि' शब्द (के प्रयोग) में भी कोई विरोध नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 292 // यहां 'क्या शब्द है या अशब्द है' इस ईहा में श्रोत्र इन्द्रिय की सदृश वस्तु का निदर्शन किया जा चुका है। अब नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों के विषयभूत सदृश वस्तुओं को क्रम से बता रहे हैं ------ विशेषावश्यक भाष्य --------425

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520