________________ [संस्कृतच्छाया:- एवमेव स्वप्नादिषु मनसः शब्दादिषु विषयेषु / भवन्ति इन्द्रिय-व्यापाराभावेऽपि अवग्रहादयः॥] एवमेवोक्तानुसारेणेन्द्रियव्यापाराभावेऽपि स्वप्नादिषु, आदिशब्दाद् दत्तकपाट-सान्धकाराऽपवरकादीनीन्द्रियव्यापाराभाववन्ति स्थानानि गृह्यन्ते, तेषु केवलस्यैव मनसो मन्यमानेषु शब्दादिविषयेष्ववग्रहादयोऽवग्रहेहाऽपायधारणा भवन्तीति स्वयमभ्यूह्याः। तथाहिंस्वप्नादौ चित्तोत्प्रेक्षामात्रेण श्रूयमाणे गीतादिशब्दे प्रथमं सामान्यमात्रोत्प्रेक्षायामवग्रहः, 'किमयं शब्दः, अशब्दो वा?' इत्याद्युत्प्रेक्षायां त्वीहा, शब्दनिश्चये पुनरपायः, तदनन्तरं तु धारणा। एवं देवतादिरूपे, कर्पूरादिगन्धे, मोदकादिरसे, कामिनीकुचकलशादिस्पर्श चोत्प्रेक्ष्यमाणेऽवग्रहादयो मनस: केवलस्य भावनीयाः॥ इति गाथार्थः / / 294 // आह- नन्वेतेऽवग्रहादय उत्क्रमेण, व्यतिक्रमेण वा किमिति न भवन्ति, यद्वा, ईहादयस्त्रयः, द्वौ, एको वा किं नाऽभ्युपगम्यन्ते, यावत् सर्वेऽप्यभ्युपगम्यन्ते?, इत्याशङ्क्याह [(गाथा-अर्थ :) इसी प्रकार, स्वप्न आदि में, इन्द्रिय-व्यापार के न होने पर भी, मन के शब्द आदि विषयों में अवग्रह आदि होते हैं।] व्याख्याः- (एवमेव) इसी पूर्वोक्त रीति से, स्वप्न आदि में, इन्द्रिय के व्यापार न होने पर भी। 'आदि' पद से इनका ग्रहण किया जाता है- बन्द दरवाजे वाले स्थान में, अन्धकारपूर्ण स्थान में, दीवार या परदे आदि से ढके स्थान में, जहां इन्द्रिय-व्यापार का अभाव होता है (मानसिक अवग्रहादि होते हैं)। इनमें केवल मन का ही व्यापार होना माना जाता है (अर्थात् इन्द्रिय-प्रवृत्ति का प्रायः अपेक्षाकृत अभाव होता है), अतः (उस स्थिति में भी) शब्दादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा का सद्भाव होता है, जिनका (स्वरूपादि सम्बन्धी) विचार स्वयं कर लेना चाहिए। जैसे- स्वप्न आदि में चित्त की उत्प्रेक्षा (कल्पना) मात्र से गीत आदि शब्द सुनाई दे रहे हों तो (उक्त मनःकृत) उत्प्रेक्षा में प्रथमतया 'सामान्य' मात्र का अवग्रह होता है, फिर 'क्या यह शब्द है या अशब्द है?' इत्यादि उत्प्रेक्षा रूप में 'ईहा' होती है। शब्द-सम्बन्धी निश्चय होने पर अपाय, और उसके बाद धारणा होती है। इसी प्रकार, (स्वप्न में) देवता आदि के रूप दर्शन की, कर्पूर आदि पदार्थों के गन्ध-अनुभूति की, मोदक आदि के रस-आस्वादन की, स्त्री के साथ स्तनकलश आदि के स्पर्श-सुख की उत्प्रेक्षा होती है, तो केवल मन के अवग्रह आदि ज्ञानों का होना समझ लेना चाहिए // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 294 // (अवग्रह आदि की क्रमवर्तिता) पूर्वपक्षी ने शंका प्रस्तुत की -ये (मात्र मनःकृत, मानसिक,) अवग्रह आदि उत्क्रम से या व्यतिक्रम से क्यों नहीं होते? अथवा ईहा आदि तीन का ही, या (इन किन्हीं में) दो का ही, या (किसी) एक का ही होना क्यों नहीं माना जाता? क्यों सभी (अवग्रह आदि चारों) का होना माना जाता है? उक्त शंका को दृष्टि में रख कर (भाष्यकार) कह रहे हैं a 428 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ...