________________ [संस्कृतच्छाया:-श्रोत्रेन्दियादिभेदेन षड्विधा अवग्रहादयोऽभिहिताः। ते भवन्ति चतुर्विंशतिःचतुर्विधं व्यञ्चनावग्रहणम्॥ अष्टाविंशतिभेदमेतत् श्रुतनिश्रितं समासेन। केचित्तु व्यञ्जनावग्रहवर्जे क्षिप्त्वा एतस्मिन् // अश्रुतनिश्रितमेवम् अष्टाविंशतिविधमिति भाषन्ते। यदवग्रहो द्विभेदः, अवग्रहसामान्यतो गृहीतः॥] श्रोत्रेन्द्रियादीनां पञ्चानामिन्द्रियाणां मनःषष्ठानां यो भेदस्तेनाऽवग्रहादयः प्रत्येकं षड्विधाश्चत्वारोऽप्यभिहिताः। ततस्तैः षभिश्चत्वारो गुणिताश्चतुर्विंशतिर्भवन्ति / अन्यच्च स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्रेन्द्रियचतुष्टयभेदाद् व्यञ्जनावग्रहणं व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधो भवति / एवमेतच्छ्रुतनिश्रितमाभिनिबोधिकज्ञानं सर्वमप्यष्टाविंशतिविधं संपद्यते। एतदपि भेदाभिधानं वक्ष्यमाणबहुतरभेदकलापापेक्षयाऽद्यापि समासेन संक्षेपेण द्रष्टव्यम्॥ अन्ये त्वेतानष्टाविंशतिभेदानन्यथा पूरयन्ति, तन्मतमुपदर्शयति- 'केइ त्तित्यादि'। केचित् पुनराचार्या एतस्मिन्नेव श्रुतनिश्रिते मतिज्ञानभेदसमुदाये व्यञ्जनावग्रहभेदचतुष्टयवर्जे 'उप्पत्तिया, वेणईया, कम्मिया, पारिणामिया' इत्यादिनाऽन्यत्र, प्रागत्रापि च प्रतिपादितस्वरूपमश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयं क्षिप्त्वा मीलयित्वा, एवमष्टाविंशतिविधं सर्वमपि मतिज्ञानमिति भाषन्ते। [(गाथा-अर्थ :) श्रोत्र आदि (पांच) इन्द्रियों (एवं छठे मन) के भेद से अवग्रह आदि (चारों में प्रत्येक) के छः-छः भेद कहे गये हैं, वे (कुल) चौबीस (6x4) हो जाते हैं। इनमें चार (प्रकार के) व्यञ्जनावग्रह को जोड़ने पर श्रुतनिश्रित (आभिनिबोधिक) ज्ञान के संक्षेप में अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। कुछ आचार्य (चार प्रकार के व्यञ्जनावग्रह से रहित) इसी (24 भेदों वाले ज्ञान) में अन्य चार (चार प्रकार की बुद्धियों) को मिला कर अश्रुतनिश्रित (-सहित मतिज्ञान) के 28 भेदों का कथन करते हैं, क्योंकि वे, यद्यपि अवग्रह दो प्रकार का है, किन्तु उसे सामान्य रूप में एक ही गिनते हैं।] ___ व्याख्याः - श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों और छठे मन के आधार पर जो भेद होता है, उसको लेकर अवग्रह आदि चारों में से प्रत्येक छः-छः प्रकार कहे गये हैं। इस प्रकार, इन छहों का चार से गुणा करने पर कुल चौबीस भेद हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त, स्पर्श, रस, घ्राण, श्रोत्र -इन चार प्रकार की इन्द्रियों के भेद से व्यञ्जनावग्रह भी चार प्रकार का होता है। इस प्रकार, सम्पूर्ण श्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान अट्ठाईस प्रकार का हो जाता है। यह (अट्ठाईस) भेदों का कथन भी आगे कहे जाने वाले बहुत से भेद-प्रभेदों के समूह की तुलना में अभी संक्षेप कथन ही है- यह समझना चाहिए। किन्तु कुछ अन्य आचार्य (उक्त) अट्ठाईस भेदों को अन्य रीति से पूरा करते हैं। उनके मत को बता रहे हैं- केचित् तु इत्यादि / (अर्थात्) कुछ आचार्य तो इसी श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के (चौबीस) भेदों में व्यञ्जनावग्रह के चार भेदों को छोड़ कर औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी व परिणामिकी -इत्यादि गाथा रूप में अन्यत्र (नन्दी सूत्र में) और पहले इस ग्रन्थ में भी जिनका स्वरूप बताया गया है, उन अश्रुत-निश्रित औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों को मिला देते हैं, और इस प्रकार समस्त मतिज्ञान अट्ठाईस भेद वाला है- ऐसा कहते हैं। Ma 438 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------