________________ चउवइरित्ताभावा जम्हा न तमोग्गहाईओ। भिन्नं तेणोग्गहाइसामण्णओ तयं तग्गयं चेव।।३०३।। [संस्कृतच्छाया:- चतुर्व्यतिरिक्ताभावाद् यस्मात् न तदवग्रहादयः। भिन्नं तेनावग्रहादिसामान्यतः तद् तद्गतमेव॥] चतुर्योऽवग्रहेहाऽपाय-धारणावस्तुभ्यो व्यतिरिक्तं चतुर्व्यतिरिक्तं तस्य चतुर्व्यतिरिक्तस्याश्रुतनिश्रितस्याभावात् कारणाद् यस्माद् यतो न तदश्रुतनिश्रितमवग्रहादिभ्यो भिन्नम्। ततः किम्?, इत्याह- तेन कारणेनावग्रहादिसामान्यादवग्रहादिसामान्यमाश्रित्य 'तयं तग्गयं चेव त्ति'। तेष्ववग्रहादिसंबन्धिष्वष्टाविंशतिभेदेष्वन्तर्गतं प्रविष्टमन्तर्भूतं तदन्तर्गतमेवाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयम्। अतः किमिति व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयं पातयित्वाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयं पुनरपि प्रक्षिप्यते?, इत्यभिप्रायः। इदमुक्तं भवति- 'सोइंदियाइभेएण छव्विहा वग्गहादओ' इत्यादिना प्रतिपादितैरवग्रहादिसंबन्धिभिरष्टाविंशतिभेदैः किलासंगृहीतत्वाद् व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयापगमं कृत्वाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयं मतान्तरवादिभिः प्रक्षिप्यते, एतच्चाऽयुक्तम्, यतः 'सोइंदियाइभेएण' इत्यादिनाऽवग्रहादीनामेवाऽष्टाविंशतिर्भेदाः प्रोक्ताः, अवग्रहादयश्च बुद्धिचतुष्टयेऽपि सन्ति, अतोऽवग्रहादिभणनद्वारेण तदप्यश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयमेतेष्वष्टाविंशतिभेदेषु संगृहीतमेव, इति किमिति तैः पुनरपि प्रक्षिप्यते? // इति गाथार्थः // 303 // .. // 303 // चउवइरित्ताभावा जम्हा न तमोग्गहाईओ। भिन्नं तेणोग्गहाइसामण्णओ तयं तग्गयं चेव।। [(गाथा-अर्थ :) (अवग्रह आदि) चारों से (अश्रुतविश्रित भी) चूंकि पृथक् नहीं है, इसलिए वह अवग्रहादि से भिन्न नहीं है। अतः अवग्रहादि सामान्य के रूप में वह (अश्रुतनिश्रित बुद्धिचतुष्टय) भी अवग्रहादि के अन्तर्गत ही है (अर्थात् यदि अवग्रह-सामान्य होने से व्यञ्जनावग्रह को छोड़ देते हैं, तो उसी तरह बुद्धि चतुष्टय भी तो छोड़ा जा सकता है।)] व्याख्याः- (चतुर्व्यतिरिक्ताभावात्) अवग्रह, ईहा, अपाय व धारणा -इन चारों से अतिरिक्त अश्रुतनिश्रित का अभाव है, इसलिए, अर्थात् चूंकि अश्रुतनिश्रित अवग्रह आदि से भिन्न नहीं है, इसलिए। (प्रश्न-) तो क्या कहना चाहते हैं? उत्तर दे रहे हैं- इसलिए अवग्रह आदि सामान्य का आश्रयण किया गया है (तद् तद्गतमेव)। तात्पर्य यह है कि अश्रुतनिश्रित चारों बुद्धियां मतिज्ञान के अवग्रहादि अट्ठाईस भेदों में ही प्रविष्ट हैं, अन्तर्गत हैं, अन्तर्भूत हैं। इसलिए चारों व्यअनावग्रहों को छोड़ कर अश्रुतनिश्रित चारों बुद्धियों को इन (अट्ठाईस भेदों) में क्यों डाल रहे हैं? तात्पर्य यह है कि 'सोइंदियाइभएण' इत्यादि (गाथा-300) के द्वारा प्रतिपादित अवग्रहादि के अट्ठाईस भेदों में असंगृहीत मान कर, चार व्यंजनावग्रहों को हटा कर अश्रुतनिश्रित चार बुद्धियों को डाला जा रहा है, वह युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि उक्त गाथा से अवग्रह आदि के ही अट्ठाईस भेद कहे गए हैं, अवग्रह आदि चारों बुद्धियों में भी हैं, अतः अवग्रह के कथन से अश्रुतनिश्रित चारों बुद्धियों का इन अट्ठाईस भेदों में संग्रह हो ही जाता है, तब क्यों पुनः उनका संग्रह किया जा रहा है? // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 303 // Nia 440 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------