Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

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Page 505
________________ अयं हि तेषामभिप्राय:- मतिज्ञानस्य संपूर्णस्येह भेदा:प्रतिपादयितुं प्रक्रान्ताः, यदि चाऽश्रुतनिश्रितं बुद्धिचतुष्टयं न गण्यते तदा श्रुतनिश्रितरूपस्य मतिज्ञानदेशस्यैवैतेऽष्टाविंशतिभेदाः प्रोक्ता भवन्ति, न तु सर्वस्यापि। यदा तूक्तन्यायेन श्रुतनिश्रितम्, अश्रुतनिश्रितं च मील्यते तदा सर्वस्याऽपि तस्य भेदाः सिद्धा भवन्ति। ननु साधूक्तं तैः, केवलमेवं सति व्यञ्जनावग्रहचतुष्टयं क्व क्रियताम्?, न ह्येतदपि विक्रीयमाणं खलखण्डमात्रेण क्रीतम्, किन्त्विदमपि मतिज्ञानान्तर्गतमेव / ततोऽस्माद् निष्काश्यमानं वराकमिदं क्वाऽवस्थितिं बनातु?, इत्याशङ्क्याह-'जमवग्गहो इत्यादि। यद् यस्माद् व्यञ्जनाऽर्थावग्रहभेदतो योऽयमवग्रहो द्विभेदः प्रागुक्तः, सोऽवग्रहसामान्येन गृहीतोऽवग्रहसामान्येऽन्तर्भावितः, भवति च विशेषाणां सामान्येऽन्तर्भावः, यथा सेनायां गजादीनाम्, वनादौ च धव-खदिरादीनाम्। अतोऽवग्रहस्य सामान्यरूपतयैकत्वादवग्रहहापायधारणानामिन्द्रिय-मनोभेदेन प्रत्येकं षड्विधत्वाच्छु तनिश्रितमतिज्ञानस्य चतुर्विंशतिरेव भेदाः, अश्रुतनिश्रितस्य तु बुद्धिचतुष्टयलक्षणाश्चत्वारः, इत्येवं सर्व मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं सिध्यति।इति केषांचिद् मतम्।। इति गाथात्रयार्थः॥३०० // 301 // 302 // एतच्च तन्मतमयुक्तम्। कुतः?, इत्याह - उनका यह अभिप्राय है- सम्पूर्ण मतिज्ञान के भेदों को यहां बताया जा रहा है। यदि अश्रुतनिश्रित चार बुद्धियों को परिगणित नहीं किया जाय तो मतिज्ञान के एक भेद- श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ही अट्ठाईस भेद हो जाएंगे, न कि समस्त (मतिज्ञान) के। और तब उक्त रीति से श्रुतनिश्रित (के 2 चौबीस भेद) और अश्रुतनिश्रित (के चार भेद)- इनको मिला दिया जाता है तो (अट्ठाईस भेद) समस्त मतिज्ञान के हो जाते हैं। - (शंका-) उन्होंने ठीक ही तो कहा है, ऐसा मानने पर केवल यही प्रश्न उठता है कि व्यअनावग्रह के चार भेदों को कहां रखें? (मतिज्ञान की) खरीदफरोख्त में इस (भेदचतुष्टय) को खलिहान के थोड़े से अंश से तो खरीदा नहीं जा सकता (अर्थात् चारों व्यञ्जनावग्रह इतने महत्त्वहीन तो हैं नहीं कि 24 भेदों के साथ स्वतः गृहीत हो जाएं), किन्तु ये (व्यअनावग्रह) मतिज्ञान के अन्तर्गत ही हैं। इसलिए इन चारों (व्यञ्जनावग्रहों) को निकाल दिया जायेगा तो वे बिचारे कहां जगह पाएंगे? इस शंका को दृष्टि में रखकर उत्तर दे रहे हैं- (यदअवग्रहः इत्यादि)। चूंकि अवग्रह के दो भेद - व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह पहले कहे गए हैं, उन्हें अवग्रह-सामान्य के रूप में अन्तर्भूत कर लिया गया है, और विशेष (भेदों) का सामान्य में अन्तर्भूत कर लिया जाता है, जैसे सेना में हाथी आदि का और वन में धव, खदिर (खैर) आदि वृक्षों का अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए अवग्रह को सामान्यतया एक मान लेने से अवग्रह, ईहा, अपाय, धारणा -इन चारों में प्रत्येक के छः-छः भेद होने से श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चौबीस ही भेद होते हैं। अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार बुद्धि के रूप में चार भेद होते हैं। इस प्रकार समस्त मतिज्ञान अट्ठाईस भेद वाला सिद्ध होता है- यह किन्हीं का मत है। यह तीन गाथाओं का अर्थ पूर्ण हुआ // 300-302 // (अट्ठाईस भेदों में बुद्धि-चतुष्टय का अन्तर्भाव युक्तियुक्त नहीं) __ उनका उक्त मत युक्तियुक्त नहीं है। किस प्रकार? इसे (भाष्यकार) स्पष्ट कर रहे हैं--- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 439 - -

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