Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

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Page 499
________________ इदमुक्तं भवति- ज्ञेयस्याऽपि शब्दादेः स स्वभावो नास्ति, य एतैरवग्रहादिभिरेकादिविकलैरभिन्नैः, समकालभाविभिः. उत्क्रमाऽतिक्रमवद्भिश्चाऽवगम्येत, किन्तु शब्दादिज्ञेयस्वभावोऽपि तथैव व्यवस्थितो यथाऽमीभिः सर्वैर्भिन्नैः, असमकालैः, उत्क्रमाऽतिक्रमरहितैश्च संपूर्णो यथावस्थितश्चाऽवगम्यते, अतो ज्ञेयवशेनाऽप्येते यथोक्तरूपा एव भवन्ति। तदेवं'उक्कमओऽइक्कमओ एगाभावे विवा' इत्यादिगाथोक्तं प्रसङ्गतोऽन्यदपि भिन्नत्वम्, असमकालत्वं च समर्थितम् // इति गाथार्थः // 297 // अत्र परः प्राह अब्भत्थेऽवाओ च्चिय, कत्थइ लक्खिज्जए इमो पुरिसो। अन्नत्थ धारण च्चिय, पुरोवलद्धे इमं तं ति॥२९८॥ [संस्कृतच्छाया:- अभ्यस्ते अपाय एव क्वचित् लक्ष्यते असौ पुरुषः। अन्यत्र धारणैव पुरोपलब्धे इदं तद् इति // ] स्वभ्यस्तेऽनवरतं दृष्टपूर्वे, विकल्पिते, भाषिते च विषये पुनः क्वचित् कदाचिदवलोकितेऽवग्रहेहाद्वयमतिक्रम्य प्रथमतोऽप्यपाय एव लक्ष्यतेऽनुभूयते निर्विवादमशेषैरपि जन्तुभिः, यथा 'असौ पुरुषः' इति / अन्यत्र पुनः क्वचित् पूर्वोपलब्धे सुनिश्चिते दृढवासने - तात्पर्य यह है -ज्ञेय (ज्ञान के विषय होने वाले) शब्द आदि का भी यह स्वभाव नहीं है जो इन अवग्रह आदि में से किसी एक से या उनकी विकलता में अर्थात् चारों में से किसी एक का भी अभाव होने से, या उनकी अभिन्नता (संकीर्णता) की स्थिति में, एक समय में या उत्क्रम या व्यतिक्रम से होने वाले अवग्रह आदि से ज्ञेय हो जाएं। किन्तु शब्दादि का ज्ञेय होने का स्वभाव भी इस प्रकार व्यवस्थित (निश्चित) है कि वे इन सभी भिन्न-भिन्न, पृथक्-पृथक् समय में होने वाले, उत्क्रम व अतिक्रम से रहित अवग्रहादि से (ही) संपूर्णतया व यथार्थ रूप में ज्ञेय होते हैं। इसीलिए 'ज्ञेय' पदार्थ के (उसके अपने स्वभाव की विवशता के) कारण भी, ये अवग्रह आदि पूर्वोक्त स्वरूप वाले ही होते हैं। इस प्रकार, 'उत्क्रम से या अतिक्रम से, या एक के भी अभाव होने से' इत्यादि पूर्व गाथा (295) में कहे गये का तथा प्रसंगानुरूप उनकी भिन्नता का एवं उनके अलग-अलग समय में होने का समर्थन किया गया है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 297 // . अब पूर्वपक्षी का कथन इस प्रकार है // 298 // अब्भत्थेऽवाओ च्चिय, कत्थइ लक्खिज्जए इमो पुरिसो। अन्नत्थ धारण च्चिय, पुरोवलद्धे इमं तं ति // - [(गाथा-अर्थ :) अभ्यस्त विषय में कभी (देखने की क्रिया में) 'यह पुरुष है' इस प्रकार अपाय का ही होना अनुभूति में आता है। (कभी) पूर्वज्ञात वस्तु सामने (पुनः) उपलब्ध हो तो 'यह वह है' -ऐसी धारणा ही होती है (अतः चारों का ही होना जो आपने कहा, वह खंडित हो जाता है)।] व्याख्याः- जो निरन्तर पहले देखा जा चुका है, विकल्प का विषय भी हो चुका है और उसके बारे में कहा भी जा चुका है, ऐसे सम्यक् अभ्यस्त (परिचित) विषय में, जब वह पुनः कहीं कभी देखा ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----433 र

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