________________ तथाहि- नैश्चयिकावग्रहवादिनेदानीं शक्यमिदं वक्तुं यदुत-क्षिप्रेतरादिविशेषणानि व्यावहारिकावग्रहविषयाण्येतानि, ... असंख्येयसमयनिष्पन्नत्वेनाऽस्य क्षिप्र-चिरग्रहणस्य युज्यमानत्वात्, विशेषग्राहकत्वेन बहु-बहुविधादिग्रहणस्याऽपि घटमानकत्वादिति। 'सामण्ण-तयण्णविसेसेहा' इत्यादिना प्रागभिहितं समयोपयोगबाहुल्यमप्यस्मिन् निरास्पदमेव, सामान्यग्रहणेहापूर्वकत्वेन, असंख्येयसामयिकत्वेन चैकसमयोपयोगबाहुल्यस्याऽत्राऽसम्बद्ध्यमानत्वादिति। नन नैश्चयिकावग्रहे किं क्षिप्रेतरादिविशेषणकलापो न घटते, येन व्यावहारिकावग्रहापेक्षः प्रोच्यते?। सत्यम्, मुख्यतया व्यवहारावग्रहे एव घटते, कारणे कार्यधर्मोपचारात् पुनर्निश्चयावग्रहेऽपि युज्यते, इति प्रागप्युक्तम्, वक्ष्यते च। विशिष्टादेव हि कारणात् कार्यस्य वैशिष्ट्यं युज्यते, अन्यथा त्रिभुवनस्याऽप्यैश्वर्यादिप्रसङ्गः, काष्ठखण्डादेरपि रत्नादिनिचयाऽवाप्तेः, इत्यलं प्रसङ्गेन। प्रकृतमुच्यते-संतानेन च योऽसौ सामान्य-विशेषव्यवहारो लोके रूढः, सोऽपि 'व्यवहारावग्रहे सति युज्यते' इतीहापि / सम्बध्यते। लोकेऽपि हि यो विशेषः सोऽप्यपेक्षया सामान्यम्, यत्सामान्यं तदप्यपेक्षया विशेष इति व्यवह्रियते। तथाहि- 'शब्द . एवाऽयम्' इत्येवमध्यवसितोऽर्थः पूर्वसामान्यापेक्षया विशेषः, 'शाङ्खोऽयम्' इत्युत्तरविशेषापेक्षया तु सामान्यम्, इत्येवं यावदन्त्यो होगी (और एक समयवर्ती होना असंगत होगा) -यह कहा गया था। इन सब दोष-जाल का परिहार व्यावहारिक अर्थावग्रह को मान लेने पर सम्भव हो जाता है। नैश्चयिक अर्थावग्रह के समर्थक द्वारा अब यह कहा जा सकता है कि क्षिप्र, चिर आदि विशेषण व्यावहारिक अवग्रह के हैं, क्योंकि असंख्येय समय में इसके निष्पन्न होने से इसमें क्षिप्र या चिर ग्रहण का होना संगत होता है और विशेष-ग्राहक होने से, बहु, बहुविध आदि ग्रहणों की भी संगति हो जाती है, 'सामान्य-तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि कथन द्वारा पहले 'समयोपयोगबहुलता' का दोष दिया गया था, वह भी इसमें कोई संकट खड़ा नहीं करता, क्योंकि सामान्य ग्रहणं व ईहा के बाद होने से, तथा असंख्येय समय वाला होने से 'एकसमय में उपयोग-बहुलता' (के दोष) का यहां सम्बन्ध ही नहीं बनता। (शंका-) नैश्चयिक अवग्रह में क्या क्षिप्र, चिर आदि विशेषण-समूह घटित नहीं होता जो आप व्यावहारिक अर्थावग्रह की अपेक्षा (की वकालत) कर रहे हैं? (उत्तर-) सही है, मुख्यतया तो व्यवहार अवग्रह में ही घटित होता है -यह पहले भी हमने कहा है, आगे भी कहेंगें। कारण जब विशिष्ट हो, तभी कार्य का वैशिष्ट्य संगत होता है, अन्यथा तीनों लोक ऐश्वर्यसम्पन्न हो जाएंगे और लकड़ी के टुकड़े से भी रत्न आदि के समूह की प्राप्ति होने लगेगी, अतः इस सम्बन्ध में अधिक नहीं कहना है। अब प्रस्तुत विषय पर चर्चा (प्रारम्भ) कर रहे हैं- लोक में (ज्ञान-) सन्तान के रूप में सामान्य-विशेष-सम्बन्धी जो व्यवहार है, 'वह भी व्यावहारिक अवग्रह के मानने पर ही संगत होता है' -यह कथन यहां भी सम्बद्ध होता है। लोक में भी जो 'विशेष' है, वह किसी अपेक्षा से सामान्य भी है, और जो 'सामान्य' है, वह भी अपेक्षा से 'विशेष' है- ऐसा व्यवहार में (देखा जाता) है। जैसे'यह शब्द ही है' -इस प्रकार अध्यवसित अर्थ अपने पूर्व 'सामान्य' की अपेक्षा 'विशेष' है, किन्तु 418 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------