Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

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Page 485
________________ विशेष इति प्रागप्युक्तम्। अयं चोपर्युपरिज्ञानप्रवृत्तिरूपेण संतानेन लोके रूढः सामान्य-विशेषव्यवहार औपचारिकावग्रहे सत्येव घटते, नान्यथा, तदनभ्युपगमे हि प्रथमापायानन्तरमीहाऽनुत्थानम्, उत्तरविशेषग्रहणं चाऽभ्युपगतं भवति, उत्तरविशेषाग्रहणे च प्रथमापायव्यवसितार्थस्य विशेषत्वमेव, न सामान्यत्वम् -इति पूर्वोक्तरूपो लोकप्रतीतः सामान्यविशेषव्यवहारः समुच्छिद्येत। अथ प्रथमापायानन्तरम् अभ्युपगम्यत ईहोत्थानम्, उत्तरविशेषग्रहणं च, तर्हि सिद्धं तदपेक्षया प्रथमापायव्यवसितार्थस्य सामान्यत्वम्, यश्च सामान्यग्राहकः, यदनन्तरं चेहादिप्रवृत्तिः सोऽर्थावग्रहः, नैश्चयिकाऽऽद्यर्थावग्रहवत्, इत्युक्तमेव। इति सिद्धो व्यावहारिकार्थावग्रहः, तत्सिद्धौ च सन्तानप्रवृत्त्याऽन्त्यविशेषं यावत् सिद्धः सामान्य-विशेषव्यवहारः॥ इति गाथार्थः // 288 // ॥इति मतिज्ञानाऽऽद्यभेदलक्षणो द्विभेदोऽप्यवग्रहः समाप्त इति॥ 'यह शङ्ख का शब्द है' -इस उत्तरवर्ती विशेष की अपेक्षा से सामान्य है, इस प्रकार जब तक अन्तिम 'विशेष' है, तब तक यह (सामान्य-विशेष व्यवहार) होता है- ऐसा हमने पहले भी कहा है। यह जो एक के बाद दूसरे ज्ञान की प्रवृत्ति रूप परम्परा के रूप में लोक में सामान्य-विशेष व्यवहार रूप (प्रचलित) है, वह भी औपचारिक अवग्रह के मानने पर ही संगत होता है, अन्यथा नहीं। और, उसको स्वीकार नहीं करें तो प्रथम अपाय के बाद ईहा की प्रवृत्ति का होना ही (सम्भव) नहीं होगा, और उत्तरवर्ती विशेषों का ग्रहण न होना मान लेना पड़ेगा, और उत्तरवर्ती विशेष का ग्रहण न होना मानने पर प्रथम अपाय से निश्चित अर्थ ही 'विशेष' होगा, वह 'सामान्य' नहीं होगा -इस प्रकार पूर्वोक्त लोक-सामान्य में अनुभूत सामान्य-विशेष व्यवहार का समुच्छेद ही हो जाएगा। ...... (शंका-) प्रथम अपाय के बाद 'ईहा' होती है, और उत्तरवर्ती 'विशेष' का ग्रहण होता हैऐसा मान लें तो क्या हानि है? (उत्तर-) तब तो उस (उत्तरवर्ती विशेष) की अपेक्षा से प्रथम अपाय से निश्चित अर्थ की सामान्यरूपता सिद्ध हो ही गई, और जो सामान्य-ग्राहक है, उसके बाद ईहा आदि की प्रवृत्ति होती है, वह अर्थावग्रह है, यह कहा जा चुका है, इस प्रकार व्यावहारिक अर्थावग्रह सिद्ध हो गया, और उसके सिद्ध होने पर सन्तान-प्रवृत्ति के कारण अन्तिम 'विशेष' तक, सामान्य-विशेष का व्यवहार भी सिद्ध हो गया // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 288 // [यहां तक मति ज्ञान के प्रथम भेद 'अवंग्रह' के दोनों प्रकारों का निरूपण समाप्त हुआ॥] -- विशेषावश्यक भाष्य -- ----419

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