Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

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Page 483
________________ व्यावहारिकाऽर्थावग्रहाभ्युपगमे यो गुणस्तं सविशेषमुपदर्शयन्नाह खिप्पेयराइभेओ पुव्वोइयदोसजालपरिहारो। जुज्जइ संताणेण य, सामण्ण-विसेसववहारो॥२८८॥ [संस्कृतच्छाया:- क्षिप्रेतरादिभेदपूर्वोदितदोषजालपरिहारः। युज्यते संतानेन च सामान्यविशेषव्यवहारः॥] क्षिप्रेतरादिभेदं यत् पूर्वोदितदोषजालं तस्य परिहारो युज्यते 'अस्मिन् व्यावहारिकेऽर्थावग्रहे सति' इति प्रक्रमाद् गम्यते। इदमुक्तं भवति- एकसामयिकनैश्चयिकाऽर्थावग्रहव्याख्यातारं प्रति प्राग् यदुक्तम्- यद्यसावेकसामयिकः, तर्हि कथं क्षिप्रचिरग्रहणविशेषणमस्योपपद्यते, तथा यद्यसौ सामान्यमात्रग्राहकः, तर्हि बह-बहविधादिविशेषणोक्तं विशेषग्रहणं कथं घटते?. तथाऽर्थावग्रहस्य विशेषग्राहकत्वे यत् समयोपयोगबाहुल्यमुक्तम्, इत्यादिकस्य दोषजालस्य परिहारो व्यावहारिकेऽर्थावग्रहे सति युज्यते। इत्यादि अपाय ज्ञान स्वरूप होता है, किन्तु अपाय तो सामान्य-ग्रहण व ईहा के बिना सम्भव नहीं होता -इत्यादि कथन हमने कई बार किया है। अतः पहले वाला (गाथा-261 तक) व्याख्यान ही मुख्य है, (इस सम्बन्ध में और) अधिक विस्तार (से कहने) की अब आवश्यकता नहीं | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 287 // (व्यावहारिक अर्थावग्रह मानने से लाभ) : व्यावहारिक अर्थावग्रह मानने पर जो गुण (उपयोगिता) है, उसे दिखला रहे हैं ___ // 288 // खिप्पेयराइभेओ पुव्वोइयदोसजालपरिहारो। जुज्जइ संताणेण य, सामण्ण-विसेसववहारो॥ [(गाथा-अर्थ :) (इस व्यावहारिक अर्थावग्रह को स्वीकारते हैं तो) क्षिप्र, चिर आदि (अवग्रह के) भेदों के सम्बन्ध में दोषों के जाल का होना जो पहले बताया गया है, उसका परिहार करना उपयुक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त, सन्तान (उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान की परम्परा) रूप में जो (लोक में) सामान्य-विशेष का व्यवहार होता है, वह भी घटित (संगत) हो जाता है।] व्याख्याः- क्षिप्र, चिर आदि के रूप में दोष-जाल (दोषों के समूह) का निर्देश किया गया था, उसका परिहार सम्भव हो पाता है, इस व्यावहारिक अर्थावग्रह स्वीकार करने पर -यह प्रकरणवश ज्ञात होता है। तात्पर्य यह है- एक समय काल प्रमाण तक ही रहने वाले नैश्चलिक अर्थावग्रह के व्याख्यान करने वाले को लक्ष्य कर पहले जो (दोष) कहा गया था- दि वह एक समयवर्ती है, तब इसमें क्षिप्र, चिर आदि ग्रहणों (ज्ञानों) के विशेषण किरः प्रकार संगत हो सकते हैं? और यदि यह सामान्य मात्र का ग्राहक है तो बहु, बहुविध आदि विशेषणों से निर्दिष्ट विशेष-ग्रहण किस प्रकार घटित होता है? इसके अतिरिक्त, अर्थावग्रह यदि विशेष का ग्राहक है तो समयोपयोग की बहुलता Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य --- ----417

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