________________ तात्पर्यम् / तदत्राहमपि भवन्तं पृच्छामि- तदेतद् मनसोऽग्रहणमर्थानां किंकृतं किंनिबन्धनम्?, अप्राप्तकारित्वसामान्येऽप्राप्तकारित्वे तुल्येऽपीत्यर्थः। तस्माद् मनसोऽपि विषयपरिमाणसद्भावादनन्तरगाथोक्तः साध्यविकलो दृष्टान्त इति स्थितम् // इति गाथार्थः // 247 // तत् किंकृतमग्रहणमर्थानाम्?, इत्यत्र पराभिप्रायमाशङ्कमानः प्राह कम्मोदयओव्व सहावओव्वनणु लोयणे वितं तुल्लं। तुल्लो व उवालंभो एसो संपत्तविसए वि॥२४८ // [संस्कृतच्छाया:- कर्मोदयतो वा स्वभावतो वा लोचनेऽपि ननु तत् तुल्यम्। तुल्यो वा उपालम्भ एष संप्राप्तविषयेऽपि॥] यत् केषांचिदर्थानां मनसोऽग्रहणं तत् 'तदावरणकर्मोदयाद् वा, स्वभावाद् वा' इति परो ब्रूयात्। नन्वेतल्लोचनेऽपि तुल्यम्,यतस्तदप्यप्राप्यकारित्वे तुल्येऽपि कर्मोदयात्, तत्स्वाभाव्याद् वा कांश्चिदेवाऽर्थान् गृह्णाति न सर्वानिति। तदेवं नयनस्याऽप्राप्यकारित्वेऽतिप्रसङ्गलक्षणं प्राप्तकारिवादिना यद् दूषणमुक्तं तत्परिहृतम्। यह है कि यद्यपि यह है कि यद्यपि केवलि-ज्ञेय वे गहन पदार्थ विद्यमान भी होते हैं, फिर भी, मन उन्हें ग्रहण नहीं करता, नहीं जान पाता। अब, (इस वस्तुस्थिति में) हम भी आप (पूर्वपक्ष) से यह पूछते हैं कि मन द्वारा इन पदार्थों को ग्रहण न कर पाने में आखिर क्या कारण है, हेतु है? वहां अप्राप्यकारिता तो समान ही है- यह अर्थ है। (मन के लिए वे सभी अज्ञात पदार्थ, ज्ञात पदार्थों की तरह ही, समान रूप से अप्राप्त-अस्पृष्ट हैं, फिर क्या कारण है मन के लिए ये पदार्थ अज्ञात रह जाते हैं?) इसलिए, मन के भी विषय-परिमाण होता है (उसके विषय परिमित ही होते हैं) -इस दृष्टि से आप (पूर्वपक्ष) द्वारा मन का जो दृष्टान्त दिया गया, वह साध्य (विषय-अपरिमितता) से रहित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 247 // .. (समस्त) पदार्थों के अ-ग्रहण में क्या कारण हैं- इस विषय में पूर्वपक्ष की ओर से संभावित उत्तर को दृष्टि में रख कर भाष्यकार कह रहे हैं // 248 // कम्मोदयओ व्व सहावओ व नणु लोयणे वि तं तुल्लं / तुल्लो व उवालंभो एसो संपत्तविसए वि // [(गाथा-अर्थ :) (ज्ञानावरण आदि) कर्मों के उदय से, या स्वभाव (-गत असामर्थ्य) के कारण, (मन द्वारा) पदार्थों का अग्रहण होता है (ऐसा आप पूर्वपक्षी कहें), तो यही कारण नेत्र इन्द्रिय में भी समान रूप से कार्यकारी) है। अथवा (आपने) जो उपालम्भ दिया है, वह तो 'संप्राप्तविषय' में भी लागू होता है (अर्थात् उन्हें प्राप्यकारी मानने पर भी तो यही उपालम्भ दिया जा सकता है, अतः उक्त उपालम्भ का औचित्य नहीं रहा)।] __ व्याख्याः- मन द्वारा जो किन्हीं पदार्थों का ग्रहण नहीं होता, वह सम्बन्धित आवरण कर्म के उदय से, या अपने वैसे (सीमित) स्वभाव के कारण होता है- ऐसा परपक्ष द्वारा कहा जा सकता है, तो (हमारा कहना है कि) यही समान कारण नेत्र इन्द्रिय में भी लागू हो सकता है, क्योंकि नेत्र भी तो MA----------- विशेषावश्यक भाष्य -------- ------ 361