Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

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Page 471
________________ एतदुक्तं भवति-यदिदमर्थावग्रहे विशेषज्ञानं त्वयेष्यते सोऽपायः, सा चाऽवगमस्वभावो निश्चयस्वरूप इत्यर्थः। या च तत्समकालमीहाऽभ्युपेयते सा, तर्कस्वभावा, अनिश्चयात्मिकेत्यर्थः। तत एतावीहाऽपायावनिश्चयेतरस्वभावौ कथमर्थावग्रहे युगपदेव युक्तौ, निश्चयाऽनिश्चययोः परस्परपरिहारेण व्यवस्थितत्वात्, एकत्रैकदाऽवस्थानाभावेन सहोदयाऽनुपपत्तेः? इति। एषा तावद् विशेषावगमेहयोः सहभावे एकाऽनुपपत्तिः। अपरं च समयमात्रकालोऽर्थावग्रहः, ईहाऽपायौ तु 'ईहावाया मुहुत्तमंतं तु' इति वचनात् प्रत्येकमसंख्येयसमयनिष्पन्नौ कथमेकस्मिन्नर्थावग्रहसमये स्याताम्, अत्यन्तानुपपन्नत्वात्।। इति द्वितीयाऽनुपपत्तिः। * तस्मादत्यन्तासंबद्धत्वाद् यत् किञ्चिदेतत्, इत्युपेक्षणीयम्॥ इति गाथार्थः॥२७९ // तदेवं युक्तिशतैर्निराकृतानामपि प्रेरकाणां नि:संख्यात्वात् केषांचित् प्रेर्यशेषमद्यापि सूरिराशङ्कते चाहिए)। (प्रश्न-) ये दोनों कैसे हैं? (उत्तर-) बता रहे हैं- (तर्कावगमस्वभावौ)। तर्क व अवगम स्वभाव वाले हैं। तर्क यानी विमर्श, उस स्वभाव वाली 'ईहा' है, अवगम यानी निश्चय, उस स्वभाव वाला 'अपाय' है। ये दोनों ही पृथक्-पृथक् असंख्येय समयों में निष्पन्न होते हैं। ___तात्पर्य यह है कि आपने अर्थावग्रह में जो विशेष ज्ञान माना है, वह 'अपाय' (ही तो) है, वह अवगम-स्वभावी है अर्थात् निश्चयात्मक है। उसी के समकालीन जो 'ईहा' आप मानते हैं, वह तो तर्कस्वभावी है, अर्थात् अनिश्चयात्मिका है। चूंकि निश्चय व अनिश्चय -ये दोनों परस्पर-विरुद्ध होने से, परस्पर एक दूसरे के बिना ही व्यवस्थित होते हैं, एक स्थान में एक समय में उनका रहना नहीं होता, इसलिए एक साथ उदित (प्रकट) होना असंगत ही है। इस स्थिति में अनिश्चय व निश्चय स्वभाव वाले इन दोनों का एक साथ ही अर्थावग्रह में होना किस प्रकार युक्तियुक्त (संगत) हो सकता है? विशेष ज्ञान व ईहा की सहवर्तिता में यह तो एक असंगति हई। दूसरी (असंगति यह है कि अर्थावग्रह तो मात्र एक समय का होता है। किन्तु 'ईहा व अपाय -ये दोनों मुहूर्तकालवर्ती हैं' इस आगमिक वचन से, ईहा व अपाय -ये दोनों तो प्रत्येक असंख्येय समय में निष्पन्न होने वाले होते हैं, ये कैसे एक अर्थावग्रह के समय में हो सकते हैं? क्योंकि ऐसा होना अत्यन्त असंगत है- यह दूसरी असंगति हुई। इसलिए पूर्वोक्त कथन अत्यन्त असम्बद्ध होने के कारण ‘तुच्छ' है, अतः वह उपेक्षणीय है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 279 // (अवग्रह में बहु, बहुविध आदि प्रकार कैसे?) - इस प्रकार सैकड़ों युक्तियों से पराजित किये जाने पर भी, प्रेरकों (पूर्वपक्षी की भूमिका निभाने वाले वादियों) की 'निःसंख्य स्थिति' होती है (अर्थात् उनकी कोई नियत संख्या नहीं होती, अनगिनत भी होते हैं), इसलिए अब भी किन्हीं (बचे-खुचे) वादियों की ओर से कुछ प्रश्न या आक्षेप के होने की आशंका को सूरि (भाष्यकार) व्यक्त कर रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------405 EE

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