________________ [संस्कृतच्छाया:- आलोचनेति नाम भवेत् तद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव। भवेत् कथं सामान्यग्रहणं तत्रार्थशन्ये॥] तस्मादोलाचनमिति यन्नाम तदन्यत्र निर्गतिकं सत् पारिशेष्याद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव द्वितीयं नाम भवेत्। न च विवक्षामात्रप्रवृत्तेषु वस्तूनां बहुष्वपि नामसु क्रियमाणेषु कोऽपि विवादमाविष्करोति? / अत एतदपि नामान्तरमस्तु, को दोषः? इति / नैतदेवम्, यस्मादिदं सामान्यग्राहकमालोचनज्ञानं भविष्यति, अर्थावग्रहस्तु विशेषग्राहक इति। एवमप्यस्माकं समीहितसिद्धिर्भविष्यतीति चेत्। इत्याह'होजेत्यादि'। व्यञ्जनावग्रहस्यैव पारिशेष्यादालोचनज्ञानत्वमापन्नम्, तत्र प्रागुक्तयुक्तिभिरर्थशून्ये कथं सामान्यग्रहणं भवेत्, येन भवतः समीहितसिद्धिप्रमोदः? / इति / तस्मादविग्रह एव सामान्यार्थग्राहकः, न पुनरेतस्मादपरमालोचनाज्ञानम् / अत एव यदुक्तम्'अस्ति ह्यालोचनाज्ञानं प्रथमं निर्विकल्पकम्' इत्यादि, तदप्यर्थावग्रहाश्रयमेव यदि, घटते, नान्यविषयम् // इति गाथार्थः // 277 // अथ 'दुर्बलं वादिनं दृष्ट्वाऽभ्युपगमोऽपि कर्तव्यः' इतिन्यायप्रदर्शनार्थमाह गहियं व होउ तहियं, सामण्णं कहमणीहिए तम्मि। . अत्वावग्गहकाले विसेसणं एस सद्दो त्ति?॥२७८ // [(गाथा-अर्थ :) आलोचन यह नाम हो तो वह व्यञ्जनावग्रह का ही (संगत) होगा। किन्तु तब अर्थशून्य में सामान्य का ग्रहण कैसे (घटित) होगा?] व्याख्याः- इसलिए 'आलोचन' यह जो नाम है, वह अन्यत्र उपयुक्त नहीं होता हुआ अवशिष्ट व्यञ्जनावग्रह का ही दूसरा नाम होगा। विवक्षा मात्र से वस्तुओं के अनेक नाम रख दिये जाते हैं, इसलिए कोई वहां विवाद नहीं करता। इसलिए (व्यअनावग्रह का) यह भी एक अन्य नाम हो तो क्या दोष है? (उत्तर-) ऐसा नहीं है (दोष वहां है ही,) क्योंकि तब आलोचन ज्ञान तो सामान्य-ग्राहक होगा, और अर्थावग्रह विशेष-ग्राहक हो जाएगा (और ऐसा होना दोषपूर्ण, असंगत है)। (पूर्वपक्ष-) इस रीति से भी हमारा अभीष्ट सिद्ध हो जाएगा, (आपत्ति क्या है?) उत्तर है- (भवेत् कथम्)। अन्य विकल्पों के निराकरण किये जाने से अब अवशिष्ट व्यअनावग्रह को ही आलोचन ज्ञान मानना पड़ेगा, उस स्थिति में पूर्वोक्त युक्तियों द्वारा अर्थशून्य में सामान्य ग्रहण कैसे होगा, जो आप अपने अभीष्ट सिद्धि होने की खुशी मना रहे हैं? इसलिए अर्थावग्रह ही सामान्य अर्थ का ग्राहक है, इसके बाद कोई दूसरा आलोचन ज्ञान नहीं होता। इसलिए जो कहा गया है कि- 'पहले निर्विकल्पक आलोचन ज्ञान होता है' -यह तभी घटित होता है जब उसे अर्थावग्रह में होना मानें, किसी अन्य में नहीं॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 277 // * (अवग्रह, ईहा, अपाय में प्रत्येक परस्पर भिन्न) .. अब, वादी को दुर्बल (उत्तर देने में अक्षम) देख कर, 'अभ्युगम न्याय' (वादी की बात को / थोड़ी देर के लिए मान लेने पर भी अन्यान्य दोष उद्भावित करने के मार्ग) को प्रदर्शित कर रहे हैं // 278 // गहियं व होउ तहियं, सामण्णं कहमणीहिए तम्मि / अत्थावग्गह काले विसे सणं एस सद्दो त्ति? || ------- विशेषावश्यक भाष्य - -