Book Title: Visheshavashyak Bhashya Part 01
Author(s): Subhadramuni, Damodar Shastri
Publisher: Muni Mayaram Samodhi Prakashan

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Page 467
________________ स्यात्, व्यञ्जनावग्रहचरमसमय एवाऽर्थावग्रहसद्भावात् / तस्मात् पूर्वपश्चात्कालयोनिषिद्धत्वात् पारिशेष्याद् मध्यकालवर्ती तृतीयः विकल्पोपन्यस्तो व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह एव भवताऽऽलोचनाज्ञानत्वेनाऽभ्युपगतो भवेत्। एवं च न कश्चिद् दोषः, नाममात्र एव विवादात्॥ इति गाथार्थः // 275 // क्रियतां तर्हि प्रेरकवर्गेण वर्धापनकम्, त्वदभिप्रायविसंवादलाभात्, इति चेत्। नैवम्, विकल्पद्वयस्येह सद्भावात्, तथापि तद्व्यञ्जनावग्रहकालेऽभ्युपगम्यमानमालोचनं किमर्थस्यालोचनं, व्यञ्जनानां वा? इति विकल्पद्वयम् / तत्र प्रथमविकल्पमनूद्य दूषयन्नाह तं च समालोयणमत्थदरिसणं जइ, न वंजणं तो तं। अह वंजणस्स तो कहमालोयणमत्थसुण्णस्स?॥२७६ // [संस्कृतच्छाया:- तच्च समालोचनम् अर्थदर्शनं यदि न व्यञ्जनं ततस्तत् / अथ व्यञ्जनस्य ततः कथमालोचनमर्थशून्यस्य॥] पाएगा)। व्यञ्जनावग्रह व अर्थावग्रह के बीच में कोई ऐसा काल नहीं है जहां आपके (द्वारा स्वीकृत) आलोचन ज्ञान का सद्भाव हो, क्योंकि व्यञ्जनावग्रह के चरम समय में ही अर्थावग्रह का सद्भाव (माना गया) है। इसलिए, पूर्व में या बाद में -दोनों कालों में (आलोचन ज्ञान का) निषेध होने पर, मध्यकालवर्ती होने का अवशिष्ट तृतीय विकल्प यही है कि व्यञ्जनावग्रह को ही आप आलोचन ज्ञान के रूप में स्वीकार करें। ऐसा करने पर कोई दोष भी नहीं है, मात्र नाम को लेकर ही विवाद (अन्तर) हो सकता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 275 // . (पूर्वपक्ष का कथन-) तब तो आचार्यवर्ग की ओर से हमें बधाई मिलनी चाहिए कि आपके मत से (हमारा) जो विसंवाद (विरोध) था, वह अब नहीं रहा / (उत्तर-) ऐसा आप न कहें। (आपने जो व्यअनावग्रह को ही आलोचन ज्ञान माना है, उस सम्बन्ध में) आपके सामने दो विकल्प प्रस्तुत हैं। जैसे- उस व्यञ्जनावग्रह-काल में जिस आलोचन ज्ञान को आप स्वीकारते हैं, वह अर्थ का आलोचन है या व्यञ्जनों का? ये दो विकल्प (आपके सामने) हैं। इनमें प्रथम विकल्प को अनूदित (जैसे है, उसी रूप में प्रस्तुत) करते हुए, उसमें दोष उद्भावित कर रहे हैं // 276 // तं च समालोयणमत्थदरिसणं जइ, न वंजणं तो तं। अह वंजणस्स तो कहमालोयणमत्थसुण्णस्स? || ... [(गाथा-अर्थ :) वह आलोचन ज्ञान यदि अर्थ (सामान्य) का दर्शन है, तब इसी कारण से वह व्यञ्जनावग्रह स्वरूप नहीं (कहा जा सकता) है। और यदि वह 'व्यञ्जन' (शब्दादि द्रव्य-सम्बन्ध) का आलोचन है तो (यह मानना भी युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि) अर्थशून्य का आलोचन किस प्रकार (घटित) हो सकता है?] ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- 401

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