________________ इदं शब्दबुद्धिमात्रकं शब्दमात्रस्तोकविशेषावसायित्वात् स्तोकं स्तोकविशेषग्राहकम्, अतोऽपायो न भवति, किन्त्ववग्रह ... एवाऽयमिति भावः। कः पुनस्तयपायः?, इत्याह- 'संखाईत्यादि'। शाङ्खोऽयं शब्द इत्यादिविशेषणविशिष्टं यज्ज्ञानं तदपाय: बृहद्विशेषावसायित्यादिति हृदयम्। हन्त! यदि यद् यत् स्तोकं तत् तद् नाऽपायः, तर्हि निवृत्ता सांप्रतमपायज्ञानकथा, उत्तरोत्तरार्थविशेषग्रहणापेक्षया पूर्वपूर्वार्थविशेषावसायस्य स्तोकत्वात्। एतदेवाह- 'तब्भेयेत्यादि / तस्य शाङ्खशब्दस्य ये उत्तरोत्तरभेदा मन्द्र-मधुरत्वादयः, तरुणमध्यम-वृद्ध-स्त्री-पुरुषसमुत्थत्वादयश्च तदपेक्षायां सत्यामिदमपि 'शाङ्कोऽयं शब्दः' इत्यादि ज्ञानं ननु स्तोकं-स्तोकविशेषग्राहकमेव, . इति नाऽपायः स्यात्। एवमुत्तरोत्तरविशेषग्राहिणामपि ज्ञानानां तदुत्तरोत्तरभेदापेक्षया स्तोकत्वादपायत्वाभावो भावनीयः॥ इति गाथार्थः // 255 // तमेवाऽपायाभावं स्फुटीकुर्वन्नाह (पूर्वपक्षी के कथन में दोष की उद्भावना-) (आप ही के कथनानुसार) 'शंखीय शब्द' के उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से तो ('शंखीय शब्द है') यह ज्ञान भी 'स्तोक (अल्प) विशेष ग्राहक' होने से 'अपाय' नहीं होगा।] व्याख्याः- यह 'शब्द बुद्धि मात्र' ज्ञान 'शब्दमात्र स्तोक विशेष' का निश्चायक होने से (स्तोकमिदं) 'स्तोक' (अल्पविषयक) -अल्पविशेष का ही ग्राहक है, इसलिए वह 'अपाय' नहीं है, अपितु यह अवग्रह ही है -यह तात्पर्य है। (प्रश्न-) तब फिर 'अपाय' कौन सा ज्ञान है? उत्तर दिया(शाङ्खादिः इत्यादि)। यह शब्द शंख का है' इत्यादि विशेषण (विशेषता) से युक्त जो ज्ञान है, वही 'अपाय' है, क्योंकि वह अधिक विशेष-ग्राहक होता है -यह तात्पर्य है। (पूर्वपक्ष के उक्त कथन पर भाष्यकार का दोषारोपण-) बड़े खेद की बात है! जो 'स्तोक' . (अल्पविषय-ग्राहक) है, वह 'अपाय' है- यदि ऐसा मानते हैं तो (यह शंख शब्द है- इस ज्ञान के सम्बन्ध में) अपाय ज्ञान का विचार ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि उत्तरोत्तर विशेष ग्रहण की अपेक्षा से तो पूर्व-पूर्व के अर्थविशेषात्मक ज्ञान 'स्तोक' ही (सिद्ध) होते हैं। इसी बात को (भाष्यकार) कह रहे हैं- (तद्भेदापेक्षायाम्) / शंखीय शब्द के जो मन्द्र, मधुर आदि, और तरुण-मध्यम-वृद्ध-स्त्री-पुरुष -इनमें से किसी के होने आदि जो उत्तरोत्तर भेद (संभावित) हैं, उनकी अपेक्षा से 'यह शंखीय शब्द है' इत्यादि जो ज्ञान है, वह स्तोक (अल्प) विशेषग्राही होने से 'स्तोक' (अल्प) ही है, अतः वह 'अपाय' नहीं होगा। इस प्रकार, उत्तरोत्तर विशेषग्राही ज्ञानों के भी उनके उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से 'स्तोक' (अल्प) होने से, उनमें अपायरूपता का अभाव समझ लेना चाहिए | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 25 // उक्त (प्रकार से निरूपित) 'अपाय' के अभाव को स्पष्ट करते हुए (भाष्यकार) कह रहे हैं Via 376 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----