________________ कस्यचित्पुनरवग्रहमुल्लङ्घ्य प्रथममेवेहा समुपजायेत, अपरस्य तु तामप्यतिक्रम्याऽपायः, अन्यस्य तु तमप्यतिवृत्त्य धारणा स्यात्, इत्यादिव्यतिक्रमः। न चेह वयं युक्तिमाप्रच्छनीयाः, भवदभ्युपगतस्य शक्तिवैचित्र्यस्यैव पुष्टहेतोः सद्भावात्। न चैतावुत्क्रम-व्यतिक्रमौ युक्तौ, 'उग्गहो ईहा अवायो य धारणा एव होन्ति चत्तारि' इति परममुनि-निर्दिष्टक्रमस्याऽन्यथाकर्तुमशक्यत्वादिति। तथा, यदि यत् प्रथमसमये गृह्यते स विशेषः, तर्हि 'सामण्णं च विसेसो त्ति'। यत् सामान्यं तदपि विशेषः प्राप्तः, प्रथमसमये हि सर्वस्यापि वस्तुनोऽव्यक्तं सामान्यमेव रूपं गृह्यते, ततोऽस्मिन्नप्यर्थावग्रहसमये सामान्यमेव गृह्यते -इति परमार्थः। यदि वाऽत्र विशेषबुद्धिर्भवताऽभ्युपगम्यते, तर्हि यदिह वस्तुस्थित्या सामान्यं स्थितं तदपि भवदभिप्रायेण विशेषः प्राप्तः। चशब्दो / दूषणसमुच्चयार्थः। 'सो वा सामण्णं ति'। स वा भवदभिप्रेतो विशेषो वस्तुस्थितिसमायातं सामान्यं प्राप्नोतीति। 'उभयमुभयं व त्ति' अथवा, सामान्य विशेषलक्षणमुभयमप्येतत्प्रत्येकमुभयं प्राप्नोति-एकैकमुभयरूपं स्यादित्यर्थः, तथाहि-अव ईषत् सामान्यं गृह्णातीत्यवग्रह इतिव्युत्पत्या वस्तुस्थितिसमायातं यत्सामान्यं तत् स्वरूपेण तावत् सामान्यम्, भवदभ्युपगमेन है। किन्तु किसी अन्य व्यक्ति को, अवग्रह का उल्लंघन करते हुए (उसे न करते हुए ही, तथा ईहा न होकर) 'अपाय हो जाएगा, तो किसी दूसरे को, अपाय का उल्लंघन करते हए (अपाय न होकर) धारणा होने लगेगी -इत्यादि 'व्यतिक्रम' हो सकता है। आप यह न पूछे कि इस (उत्क्रम व व्यतिक्रम) में युक्ति क्या है? क्योंकि आपकी ओर से स्वीकृत 'शक्ति-विचित्रता' ही उस (उत्क्रम व व्यतिक्रम) में पुष्ट (प्रबल) कारण विद्यमान है। ये उत्क्रम व व्यतिक्रम कथमपि युक्तियुक्त नहीं हैं, क्योंकि श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा 'अवग्रह, ईहा, अपाय व धारणा -ये चार ही (क्रम) होते हैं। इस प्रकार जो क्रम निर्दिष्ट किया गया है, उसे नकारा नहीं जा सकता। (8) और यदि जो प्रथम समय में गृहीत होता है, वह 'विशेष' है तो (सामान्यं च विशेषः), जो (वस्ततः) 'सामान्य' है, वही 'विशेष' होने लगेगा, क्योंकि प्रथम समय में सभी वस्तओं का अव्यक्त सामान्य रूप ही गृहीत होता है, इसलिए इस अर्थावग्रह के समय में वस्तुतः तो 'सामान्य' ही गृहीत होता है। अथवा, यदि वहां विशेष बुद्धि का सदभाव आप मान रहे हैं तो जो वस्ततः 'सामान्य' है. वही आपके अभिप्रायानुसार 'विशेष' कहलाने लगेगा। 'च' शब्द दोषों के समुच्चय का द्योतक है (अर्थात् सामान्य को विशेष रूप कहना -यह एक महान दोष है)। (9) (स वा सामान्यम्)। अथवा जिसे आप 'विशेष' मान रहे हैं, वह वस्तुतः 'सामान्य' है - यह सिद्ध होता है) अर्थात् आपका अभिप्राय स्वतः खण्डित हो जाता है, जो एक दोष है। (10) अथवा (उभयमुभयं वा)। इन दोनों में प्रत्येक सामान्यविशेष उभयात्मक हो जाएगा, अर्थात् प्रत्येक ही सामान्यात्मक व विशेषात्मक -दोनों रूपों वाला हो जाएगा। और, 'अवग्रह' का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है- 'अव' अर्थात् ईषत् सामान्य को 'ग्रह' अर्थात् ग्रहण करने वाला, अतः वस्तुतः (अवग्रह में) जो गृहीत है, वह स्वरूपतः 'सामान्य' ही है, किन्तु आपके मतानुसार तो वह 'विशेष' M 396 -- - विशेषावश्यक भाष्य