________________ न उण जाणइ के वेस सदाइ त्ति। तं किह णुत्ति। तदेतत् कथमविरोधेन नीयते? -युष्मद्-व्याख्यानेन सह विरुध्यते एवेदमित्यर्थः, तथाहि-अस्मिन्नन्दिसूत्रेऽयमर्थः प्रतीयते- यथा तेन प्रतिपत्त्राऽर्थावग्रहेण शब्दोऽवगृहीत इति। भवन्तस्तु शब्दाधुल्लेखरहितं सर्वथाऽमुं प्रतिपादयन्ति, ततः कथं न विरोध:?, इति भावः इति गाथार्थः॥२५२॥ अत्रोत्तरमाह सद्देत्ति भणई वत्ता, तम्मत्तं वा न सहबुद्धीए। जइ होइ सहबुद्धी, तोऽवाओ चेव सो होज्जा // 253 // [संस्कृतच्छाया:-शब्द इति भणति वक्ता तन्मात्रं वा, न शब्दबुद्धया। यदि भवति शब्दबुद्धिः ततोऽपाय एव स भवेत्॥] कैसा है, इस कथन तक का (नन्दीसूत्र में) जो कथन है, उससे (तत् कथं नु?)। किस प्रकार अविरोध (सामञ्जस्य, समन्वय) बैठ पाएगा? अर्थात् एक साथ (दोनों) व्याख्यानों में विरोध होता ही है। (अर्थात् आपका एक ओर यह कहना कि वह अर्थावग्रह अनिर्देश्य रूप से वस्तु को ग्रहण करता है और दूसरी ओर नन्दीसूत्र का यह कथन 'वह शब्द को ग्रहण करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि वह शब्द कैसा है?' -ये दोनों कथन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं।) तात्पर्य यह है कि नन्दी सूत्र से यह अर्थ ज्ञात होता है कि 'उस ज्ञाता ने शब्द को अर्थावग्रह से ग्रहण किया है, किन्तु (दूसरी तरफ) आप अर्थावग्रह को शब्दादि उल्लेख से रहित बता रहे हैं, इसलिए विरोध कैसे नहीं है? यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 252 // (अर्थावग्रह पूर्वक ही ईहा) इस (आक्षेप) का (भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं // 253 // सद्देत्ति भणई वत्ता, तम्मत्तं वा न. सद्दबुद्धीए। जइ होइ सद्दबुद्धी, तोऽवाओ चेव सो होज्जा // [ (गाथा-अर्थ :) (अर्थावग्रह में शब्द गृहीत है- ऐसा जो आगमिक नन्दीसूत्र (सूत्र-64) में कहा गया है, वहां) 'शब्द' यह कथन वक्ता (या प्ररूपणाकार आदि) का है (अर्थात् यह कथन ज्ञाता की अपेक्षा से नहीं, अपितु वक्ता, प्ररूपणाकार या सूत्रकार की ओर से है), अथवा शब्द से तात्पर्य है- शब्द तन्मात्र (विशेष ज्ञान रहित शब्द-सामान्य मात्र)। शब्द-बुद्धि से गृहीत (विशेष ज्ञान सहित) शब्द -यह (अर्थ) नहीं (ग्राह्य) है। यदि (यहां) शब्द-बुद्धि हो तो वह (अर्थावग्रह न होकर) अवाय (अपाय) ही हो जाएगा।] Me 372 -------- विशेषावश्यक भाष्य