________________ ग्राह्यवस्तुनः सामान्य-विशेषात्मकत्वे सत्यप्यर्थावग्रहेण सामान्यरूपमेवाऽर्थं गृह्णाति, न विशेषरूपम्, अर्थावग्रहस्यैकसामयिकत्वात्, समयेन च विशेषग्रहणायोगादिति। सामान्यार्थश्च कश्चिद् ग्राम-नगर-वन-सेनादिशब्देन निर्देश्योऽपि भवति, तव्यवच्छेदार्थमाह- अनिर्देश्य, केनापि शब्देनाऽनभिलप्यम्।कुतः पुनरेत?, इत्याह- यतः स्वरूप-नामादिकल्पनारहितम्, आदिशब्दाज्जाति-क्रिया-गुण-द्रव्यपरिग्रहः। तत्र रूप-रसाद्यर्थानां य आत्मीयचक्षुरादीन्द्रियगम्यः प्रतिनियतः स्वभावस्तत् स्वरूपम्। रूप-रसादिकस्तु तदभिधायको ध्वनिर्नाम, रूपत्व-रसत्वादिका तु जातिः। प्रीतिकरमिदं रूपं, पुष्टिकारोऽयं रसः इत्यादिकस्तु शब्दः। क्रियाप्रधानत्वात् क्रिया। कृष्णनीलादिकस्तु गुणः। पृथिव्यादिकं पुनर्द्रव्यम्। एषां स्वरूप-नाम-जात्यादीनां कल्पना अन्तर्जल्पारूपितज्ञानरूपा, तया रहितमेवाऽर्थमर्थावग्रहेण गृह्णाति यतो जीवः, तस्मादनिर्देश्योऽयमर्थः प्रोक्तः, तत्कल्पनारहितत्वेन स्वरूप-नाम-जात्यादिप्रकारेण केनापि निर्देष्टमशक्यत्वादिति। एवमुक्ते सति परः प्राह- जड़ एवमित्यादि। यदि स्वरूपनामादिकल्पनारहितोऽर्थोऽर्थावग्रहस्य विषय इत्येवं व्याख्यायते भवद्भिः, तर्हि 'जं ति', यन्नन्द्यध्ययनसूत्रे प्रोक्तम्। किम्?, इत्याहतेणं गहिए सहे ति। उपलक्षणत्वादित्थं संपूर्ण द्रष्टव्यम्- से जहा नामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेजा, तेणं सद्देत्ति उग्गहिए, व्याख्या:- यद्यपि ग्राह्य पदार्थ सामान्यविशेषात्मक होता है, तथापि अर्थावग्रह से सामान्य रूप से ही वह गृहीत होता है, विशेष रूप से नहीं। क्योंकि अर्थावग्रह एक समय वाला (ही) होता है और एक समय में 'विशेष' का ग्रहण नहीं हो पाता। चूंकि कोई सामान्य पदार्थ भी, जैसे ग्राम, नगर, वन, सेना आदि शब्द से निर्देश्य होता है, अतः उसके निराकरण (अग्रहण) हेतु कहा- (अनिर्देश्यम्)। अर्थात् किसी शब्द से कहा न जा सके, ऐसा / ऐसा (अर्थात् अनिर्देश्य) वह क्यों होता है? उत्तर दिया(स्वरुपनामादिकल्पनारहितम् -इत्यादि)। चूंकि वह स्वरूप, नाम आदि कल्पनाओं से रहित होता है। 'आदि’ पद से जाति, क्रिया, गुण व द्रव्य का ग्रहण यहां अभीष्ट है। इनमें 'स्वरूप' से तात्पर्य हैरूप, रस आदि अर्थों का अपनी नेत्र आदि इन्द्रियों से गम्य (ज्ञेय) जो (वस्तु का) प्रतिनियत स्वभाव ही 'स्वरूप है।रूप. रस आदि-इस रूप में उस वस्त का अभिधायक (कथन करने वाली जो) ध्वनि (है, वह) 'नाम' है। 'जाति' तो है-रूपत्व, रसत्व आदि। वह रूप प्रीतिकारक है, वह रस पुष्टिकारक है -इत्यादि शब्द क्रियाप्रधान होने से 'क्रिया' है। कृष्ण, नील आदि, ये गुण हैं। और पृथ्वी आदि, ये द्रव्य हैं। इन स्वरूप, नाम, जाति आदि की अन्तर्जल्पात्मक ज्ञान स्वरूप वाली जो कल्पना होती है, उससे रहित अर्थ को ही चूंकि जीव अर्थावग्रह रूप से ग्रहण करता है, इसलिए वह पदार्थ 'अनिर्देश्य' कहा गया है, क्योंकि स्वरूप, नाम आदि किसी भी रूप में उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। ऐसा कहने पर पूर्वपक्ष ने (प्रश्न- उपस्थित करते हुए) कहा- (यदि एवम् यत् इत्यादि)। यदि स्वरूप, नाम आदि कल्पना से रहित पदार्थ ही अर्थावग्रह का विषय होता है- ऐसी व्याख्या आप कर रहे हैं, तब नन्दीसूत्र में यह जो कहा गया है (उससे विरोध होगा)। वहां क्या कहा गया है? उत्तर दिया- (तेन गृहीतः शब्दः इति)। वह शब्द को ग्रहण करता है (इत्यादि कथन किया गया है)। यह वाक्य 'उपलक्षण' (सादृश्य से अन्य का भी वाचक) है, (वस्तुतः) वहां का सम्पूर्ण वाक्य इस प्रकार (है जो) द्रष्टव्य है। अर्थात् 'यथानाम किसी पुरुष ने' से लेकर 'यह नहीं जानता कि यह शब्द आदि ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 371 2