________________ तदेवमस्य व्यञ्जनावग्रहस्वरूपप्रतिपादकस्य नन्दिसूत्रस्य शेषं प्रायः सुगममिति मन्यमानो भाष्यकारः "जाहे तं वंजणं पूरियं होइ" इत्येतद् व्याचिख्यासुराह तोएण मल्लगं पिव वंजणमापूरियं ति जं भणियं। तं दव्वमिंदियं वा तस्संजोगो व न विरुद्धं // 250 // [संस्कृतच्छाया:- तोयेन मल्लकमिव व्यञ्जनमापूरितमिति यद् भणितम्। तद् द्रव्यमिन्द्रियं वा तत्संयोगो वा न विरुद्धम्॥] 'जं भणियं' यदुक्तं नन्दिसूत्रकारेण। किं तत्?, इत्याह- व्यञ्जनमापूरितमिति। केन किंवत्?, इत्याह- तोयेन जलेन. मल्लकं शरावं तद्वदिति। तस्मिन् सूत्रकारभणिते व्यञ्जनं द्रव्यं गृह्यते, इन्द्रियं वा, तयोर्वा द्रव्येन्द्रिययोः संयोगः संबन्धः, इति सर्वथाऽप्यविरोधः। इदमुक्तं भवति- व्यञ्जनशब्देन शब्दादिविषयपरिणतपुद्गलसमूहरूपं द्रव्यं, श्रोत्रादीन्द्रियं वा, द्रव्येन्द्रिययोः संबन्धो वा गृह्यते, न कश्चिद् विरोधः, व्यज्यते प्रकटीक्रियते विवक्षितोऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनमित्यस्या व्युत्पत्तेः सर्वत्र घटनात् // इति गाथार्थः // 250 // इस प्रकार व्यञ्जनावग्रह के स्वरूप को प्रतिपादन करने वाले नन्दीसूत्र (के उपर्युक्त अंश) का शेष भाग सुगम है- ऐसा समझ कर (यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति)। (अनन्त पुद्गलों के बार-बार गिराते रहने से) 'जब वह व्यंजन (इन्द्रिय व पुद्गलों का सम्बन्ध) पूर्ण हो जाता है' -इस कथन का व्याख्यान करने हेतु आगे कह रहे हैं // 250 // तोएण मल्लगं पिव वंजणमापूरियं ति जं भणियं। तं दव्वमिंदियं वा तस्संजोगो व न विरुद्धं // [(गाथा-अर्थ :) 'जल से सकोरे (मल्लक) की तरह, व्यञ्जन पूर्ण हो जाता है' -ऐसा जो (आगम में) कहा गया है, वहां व्यञ्जन से तात्पर्य है- द्रव्य या इन्द्रिय, या उन (इन्द्रिय व द्रव्य) का संयोग (न कि व्यञ्जनावग्रह)। अतः (हमारे पूर्वोक्त प्रतिपादन का उक्त आगम से) कोई विरोध हो, ऐसा नहीं है।] व्याख्याः - (यद् भणितम्)। नन्दीसूत्रकार ने जो यह कहा है। (प्रश्न-) क्या कहा है? उत्तर दिया- (व्यञ्जनम् आपूरितम्)। (जब) व्यअन आपूरित (पूर्ण) होता है। (प्रश्न-) किससे पूर्ण होता है और किसकी तरह पूर्ण होता है? उत्तर दिया (तोयेन मल्लकमिव)। जल से मल्लक यानी शराव (मिट्टी के सकोरे) की तरह। सूत्रकार के इस कथन में 'व्यअन' का अर्थ है- द्रव्य, या इन्द्रिय, या इन दोनों (द्रव्य व इन्द्रिय) का संयोग या सम्बन्ध, अतः किसी भी तरह से (अब तक किये गये हमारे प्रतिपादन से आगम का) विरोध नहीं है। तात्पर्य यह है- 'व्यञ्जन' शब्द से (ये तीन अर्थ, जैसे-) (1) शब्दादि विषय रूप परिणत होने वाले पुद्गल-समूह द्रव्य, या (2) श्रोत्र आदि इन्द्रिय, या (3) (उक्त) द्रव्य व इन्द्रिय का सम्बन्ध गृहीत है, अतः कोई विरोध वाली बात नहीं है, क्योंकि जिससे विवक्षित अर्थ (पदार्थ) व्यक्त यानी प्रकट हो, वह 'व्यञ्जन' है -यह व्युत्पत्ति (नियुक्ति) सर्वत्र (अर्थात् तीनों अर्थों में) घटित होती है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 250 // Na 368 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----