________________ यथा देहस्थं देहादनिर्गतमपि चक्षुः 'चन्द्रं गतम्' इति जल्पति लोकः, न च तत् सत्यम्, चक्षुषो वयादिदर्शनेन तत्कृतदाहादिप्रसङ्गात्, तथा तेनैव प्रकारेण मनसोऽपि निर्निबन्धनं रूढमिदं यदुत- 'अमुत्र गतं मे मनः' इति। रूढिरपि सत्या भविष्यति, इत्याह-नच रूढिः सर्वाऽपि सत्या, "वटे वटे वैश्रवणश्चत्वरे चत्वरे शिवः। पर्वते पर्वते रामः सर्वगो मधुसूदनः"॥१॥ -इत्यादिकाया असत्याया अपि दर्शनात् // इति गाथार्थः // 236 // तदेवं विषयप्राप्तौ निषिद्धायां मनसोऽसद्ग्रहममुञ्चन् परः प्रकारान्तरेणाऽपि तस्य व्यञ्जनावग्रहं प्रतिपादयन्नाह विसयमसंपत्तस्स वि संविजइ वंजणोग्गहो मणसो। जमसंखेजसमइओ उवओगो जं च सव्वेसु॥२३७॥ व्याख्याः -जैसे (देहस्थ) देह में ही स्थित नेत्र इन्द्रिय के बारे में लोग बोलते हैं कि 'आंखें चांद पर गई (टिकी) हैं', और यह कथन सत्य (कथमपि) नहीं है, क्योंकि (इसे सत्य मानें तो) अग्नि आदि को देखने पर, अग्नि से नेत्र को जल जाना चाहिए, वैसे ही, उसी रीति से मन के बारे में भी बेरोकटोक यह 'रूढ कथन' (परम्परा से प्रचलित लोक-कथन) किया जाता है कि 'अमुक स्थान पर मन गया हुआ है'। (प्रश्न-) उक्त रूढ़ि सत्य ही होगी (अर्थात् मन के अन्यत्र गमन को सत्य क्यों न मान लें?)। (तो इस प्रश्न का) उत्तर दिया. (न च रूढिः)। समस्त रूढ़ियां सत्य नहीं हुआ करतीं। (जैसे यह कहा जाता है-) “वट-वट में कुबेर स्थित हैं, चौराहे-चौराहे पर शिव स्थित हैं, पर्वत-पर्वत पर राम हैं और मधुसूदन सर्वत्र स्थित हैं।" इत्यादि (उपर्युक्त) रूढि-उक्तियां असत्य भी (होती) देखी जाती हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण .हुआ // 236 // (मनःकृत व्यञ्जनावग्रह नही) इस प्रकार, मन द्वारा विषय को स्पर्श (प्राप्ति) किये जाने का निराकरण करने पर भी, अपनी असत् (असमीचीन) मान्यता को नहीं छोड़ता हुआ परपक्ष (पूर्वपक्षी, विरोधी) अन्य प्रकार से . भी उस (मन) के व्यअनावग्रह होने का प्रतिपादन कर रहा है // 237 // विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जइ वंजणोग्गहो मणसो। जमसंखेजसमइओ उवओगो जं च सव्वेसु // ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 347 22