________________ इदमुक्तं भवति- न केवलं मनसः केवलावस्थायां प्रथममर्थावग्रह एव व्यापारः, किन्तु श्रोत्रादीन्द्रियोपयोगकालेऽपि तथैव। तथाहि- श्रोत्रादीन्द्रियोपयोगकाले व्याप्रियते मनः, केवलमर्थावग्रहादेवाऽऽरभ्य, न तु व्यञ्जनावग्रहकाले। अर्थावबोधस्वरूपो हि व्यञ्जनावग्रह :, तदवबोधकारणमात्रत्वात् तस्य, मनस्त्वर्थावबोधरूपमेव, मनुतेऽर्थान्, मन्यन्तेऽर्था अनेनेति वा मन सान्वर्थाभिधानाभिधेयत्वात्। किञ्च, यदि व्यञ्जनावग्रहकाले मनसो व्यापारः स्यात् तदा तस्याऽपि व्यञ्जनावग्रहसद्भावादष्टाविंशतिजातिभेदभिन्नता मतेर्विशीर्येत / तस्मात् प्रथमसमयादेव तस्याऽर्थग्रहणमेष्टव्यम्। अन्यथा किमत्र बाधकम्?, इत्याह- 'तदण्णहा न पवत्तेज्ज त्ति'। यदि हि प्रथमसमयादेव मनसोऽर्थग्रहणं नेष्यते तदा तस्य मनस्त्वेन प्रवृत्तिरेव न स्यादनुत्पत्तिरेव स्यादित्यर्थः। यथा स्वाभिधेयानर्थान् भाषमाणैव भाषा भवति, नान्यथा। यथा च स्वविषयभूताननवबुध्यमानान्येवाऽवध्यादिज्ञानान्यात्मलाभ लभन्ते, अन्यथा तेषामप्रवृत्तिरेव स्यादिति। एवं स्वविषयभूतानर्थान् प्रथमसमयादारभ्य मन्वानमेव मनो भवति, अन्यथाऽवध्यादिवत् प्रवृत्तिरेव न स्यात्। तस्मात् तस्याऽनुपलब्धिकालो नास्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रह इति स्थितम् / न चैतत् स्वमनीषिकया मात्रमुच्यते, आगमेऽपि व्यञ्जनावग्रहेऽतीत एवेन्द्रियोपयोगे मनसो व्यापाराभिधानात, तथा चोक्तं कल्पभाष्ये - तात्पर्य यह है कि जहां केवल मन की (ही) प्रवृत्ति हो रही हो, मात्र वहीं, प्रतमतया अर्थावग्रह रूप व्यापार होता हो- ऐसा नहीं। किन्तु श्रोत्र आदि इन्द्रियों के उपयोग के समय में भी, वैसा (प्रथमतः अर्थावग्रह) ही होता है। और, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के उपयोग की स्थिति में भी मन व्यापाररत तो होता है, किन्तु अर्थावग्रह के काल से ही, न कि व्यञ्जनावग्रह के काल में / व्यञ्जनावग्रह वह है जहां अर्थ का अवबोध (स्पष्ट व पूर्ण) न हो, वह व्यञ्जनावग्रह तो अर्थबोध में कारण मात्र ही होता है। किन्तु मन तो अर्थ बोध रूप ही होता है, क्योंकि 'मन' एक अन्वर्थक नाम (नाम के अनुसार गुणादि वाला) है जिसका अभिधेय (कथ्य) अर्थ होता है- जो (मनुते अर्थान्) अर्थों को जाने, अथवा (मन्यन्ते अर्था अनेन) जिसके द्वारा पदार्थों का बोध (ज्ञान) हो। . दूसरी बात, यदि (श्रोत्र आदि के) व्यञ्जनावग्रह की स्थिति में (भी) मन का व्यापार (मान्य) हो तो मन के भी व्यञ्जनावग्रह होने से (मतिज्ञान के 28 भेद जो बताए गये हैं, उनमें वृद्धि हो जाएगी, और) 28 भेदों वाली ‘मति' (की मान्यता) का खण्डन हो जाएगा। इसलिए यही मानना उचित है कि प्रथम समय से ही मन का अर्थावग्रह होता है। (शंका-) अन्यथा (अर्थात् ऐसा न मानने में) क्या बाधक है? इस शंका का उत्तर दिया- (तदन्यथा न प्रवर्तेत)। अर्थात् यदि प्रथम समय से ही मन के अर्थावग्रह होना नहीं माना जाय तो उसकी 'मन' रूप से प्रवृत्ति ही नहीं हो पाएगी। जैसे, 'भाषा' तभी कहलाती है जब वह अपने अभिधेय (कथ्य) अर्थों को कह रही हो, अन्यथा नहीं। जिस प्रकार 'अवधि' आदि ज्ञानों की स्थिति तभी (मान्य) है जब वे अपने विषयभूत पदार्थों को जान रहे हों, अन्यथा उन (अवधि आदि ज्ञानों) की प्रवृत्ति ही नहीं हो पाएगी। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि मन का (कोई) अनुपलब्धि-काल नहीं होता, इसलिए उसका व्यञ्जनावग्रह नहीं होता। और, यह सब अपनी बुद्धि से, मात्र युक्ति का कथन कर रहे हों- ऐसा नहीं, क्योंकि आगम में भी कहा गया है कि (श्रोत्र a ---------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 355