________________ असंकल्पितानि च तानि शब्दादिविषयभावेन परिणतद्रव्यरूपाणि व्यञ्जनानि च तेषां ग्रहणमसंकल्पितव्यञ्जनग्रहणं तस्य मनसोऽयुक्तम्,' किन्तु संकल्पितानामेवाऽर्थावग्रहद्वारेणाऽवगतानामेव तेषां शब्दादिद्रव्याणां ग्रहणं युक्तम्। तस्माद् न मनसोऽनुपलब्धिकालोऽस्ति, तथा च न व्यञ्जनावग्रहसंभव इति स्थितम् // इति गाथार्थः॥२४४ // तदेवं नयन-मनसोर्विस्तरेणाऽप्राप्यकारितायां साधितायां नयनपक्षेऽद्यापि दूषणशेषमुत्पश्यन् परः प्राह जइ नयणिन्दियमपत्तकारि सव्वं न गिण्हए कम्हा?। गहणागहणं किंकयमपत्तविसयत्तसामन्ने? // 245 // [संस्कृतच्छाया:- यदि नयनेन्द्रियम् अप्राप्तकारि, सर्वं न गृह्णाति कस्मात् ? ग्रहण-अग्रहणं किं कृतम् अप्राप्तविषयत्वसामान्ये?] यद्युक्तयुक्तिभ्यो नयनेन्द्रियमप्राप्तकारि, तर्हि सर्वमपि त्रिभुवनान्तर्वर्तिवस्तुनिकुरम्बं कस्माद् न गृह्णाति, अप्राप्तत्वाविशेषात्?। एतदेव व्यक्तीकरोति-अप्राप्तो विषयो यस्य तदप्राप्तविषयं तद्भावोऽप्राप्तविषयत्वं तस्मिन् सामान्येऽविशिष्टेऽपि सति यदिदं कस्यचिदर्थस्य ग्रहणं, कस्यचिदग्रहणं, तत् किंकृतं किंनिबन्धनम्?, नेह किञ्चिद् निबन्धनमुत्पश्याम इति भावः॥ इति गाथार्थः॥२४५॥ असंकल्पित-व्यअनावग्रहणं तस्य अयुक्तम्) / उक्त कारण से, (मन द्वारा) असंकल्पित, अनालोचित, अनवगत आदि (अर्थ ग्राह्य नहीं होता)। असंकल्पित व्यञ्जन-ग्रहण, अर्थात् शब्दादि विषय रूप से परिणत द्रव्य रूप जो असंकल्पित 'व्यअन' हैं, उनका ग्रहण, उसे मन का मानना युक्तियुक्त नहीं, किन्तु अर्थावग्रह के माध्यम से अवगत हुए- स्वसंकल्पित उक्त शब्द आदि द्रव्यों का ग्रहण (मन द्वारा) किया जाना ही उपयुक्त है। इसलिए मन का कोई अनुपलब्धि-काल नहीं होता, और (इसीलिए) उसका व्यञ्जनावग्रह भी (होना) संभव नहीं है- यह सिद्ध हुआ // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 244 // (मन की अप्राप्यकारिता में सब विषयों का ग्रहण क्यों नहीं?) इस प्रकार, विस्तारपूर्वक नेत्र इन्द्रिय व मन की अप्राप्यकारिता की सिद्धि कर दी गई, किन्तु परपक्ष 'नेत्र' पक्ष में अब भी (कुछ) अवशिष्ट दोष देख रहा है और वह कह रहा है // 245 // जइ नयणिन्दियमपत्तकारि सव्वं न गिण्हए कम्हा?। गहणागहणं किंकयमपत्तविसयत्तसामन्ने ? // [(गाथा-अर्थ :) यदि नेत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है तो वह सभी वस्तुओं को क्यों नहीं ग्रहण करती? सामान्यतया अप्राप्तविषयता की अपेक्षा से समानता रखते हुए भी, इसमें आखिर क्या कारण है कि मन किसी का ग्रहण करता है और किसी का नहीं करता?] व्याख्याः- यदि उपर्युक्त युक्तियों के आधार पर (यह मान लें कि) नेत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है, तो क्या कारण है कि वह तीनों लोकों के अन्दर विद्यमान वस्तु-समूह को नहीं जान पाती, क्योंकि अप्राप्तपना (अस्पृष्टपना) तो (सभी पदार्थों में) सामान्यतया है ही (अर्थात् नेत्र के लिए तो तीनों लोकों के पदार्थ 'अप्राप्त' हैं, अतः ग्राह्य होने में क्या बाधा है?) इसी बात को स्पष्ट कर रहे हैं- (अप्राप्तNa 358 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------