________________ प्रतिसमयं मनोद्रव्योपादानं ज्ञेयार्थावगमश्च मनसो भवत्येव, न पुनस्तस्यानुपलब्धिकालः संभवति। कुत:?, इत्याह- यद् यस्मात् कारणात्।'सो' इति प्राकृतशैल्या नपुंसकमपि मनःसंबध्यते। ज्ञायत इति ज्ञेयं चिन्तनीयं वस्तु तस्मादेव,स्वरूपमात्मसत्तास्वभावं लभते, नाऽन्यतः। ततो यदि तदेव ज्ञेयं नावगच्छेत्, तर्हि तस्मादुत्पत्तिरप्यस्य कथं स्यात्?। इदमुक्तं भवति- सान्वर्थक्रियावाचकशब्दाभिधेया हि मनःप्रभृतयः। तद्यथा- मनुते मन्यते वा मनः, प्रदीपयतीति प्रदीपः, शब्दयति भाषत इति शब्दः, दहतीति दहनः, तपतीति तपनः। एतानि च विशिष्टक्रियाकर्तृत्वप्रधानानि मनःप्रभृतिवस्तूनि यदि तामेवाऽर्थमनन-प्रदीपन-भाषणादिकामर्थक्रियां न कुर्युः, तदा तेषां स्वरूपहानिरेव स्यात् / तस्माद् यथा प्रदीपनीय-शब्दनीयवस्त्वपेक्षया प्रदीप-शब्दाभिधानप्रवृत्ते : प्रदीप-शब्दयोरर्थयोरप्रदीपनमशब्दनं चायुक्तम्, तथा मनसोऽपि मननीयवस्तुमननादेव मनोऽभिधानप्रवृत्तेस्तदमननं न युक्तम्। ततः किम्?, इत्याह- येनैवम्, तेनाऽसंकल्पितान्यनालोचितानि, अनवगतानीति यावत्, व्याख्याः- प्रतिसमय मनोद्रव्यों का उपादान तथा ज्ञेय का ज्ञान मन द्वारा किया जाता ही है, उसका कोई अनुपलब्धि-काल सम्भव ही नहीं। (प्रश्न-) क्यों सम्भव नहीं? उत्तर दिया- वह इस कारण से क्योंकि (स ज्ञेयादेव -इत्यादि)। [यहां गाथा में 'सो' शब्द प्रयुक्त है जो पुंलिङ्ग में है। किन्तु वह नपुंसक लिङ्ग वाले मन का विशेषण कैसे हो सकता है? इस आशंका का उत्तर दिया जा रहा हैकी] यद्यपि 'सः' पुल्लिङ्ग है, किन्तु प्राकृत भाषा की शैली के अनुरूप, नपुंसक मन के साथ सम्बद्ध होता है (अर्थात् यह नपुंसक लिङ्ग में परिवर्तित होकर मन का विशेषण होता है- ऐसा परिवर्तन प्राकृत भाषा में मान्य है- यह तात्पर्य है)। ज्ञेय यानी जो जाना जाय अर्थात् मन के चिन्तन में आने वाली वस्तु, उसी वस्तु से ही (मन अपने मनन-चिन्तनमय) स्वरूप को- अपनी आत्मीय सत्ता को प्राप्त करता है, और किसी (अन्य रीति) से नहीं। यदि वह 'मन' (होकर) भी ज्ञेय को अवगत (ज्ञात) न कर पाये तो उस ज्ञेय से उस (के सार्थक स्वरूप) की उपलब्धि कैसे सम्भव हो पाएगी? तात्पर्य यह है कि 'मन' आदि (जो) शब्द (हैं, वे) अन्वर्थक क्रियावाचक शब्द के अभिधेय अर्थ से युक्त हैं। जैसे, जो मनन यानी अवबोधन, चिन्तन करता है या जानता है, वह 'मन' होता है * (इसके विपरीत स्वरूप वाला कोई पदार्थ 'मन' नहीं कहलाता)।जो दीप्त, दीपित, प्रकाशित करता है, वह (ही) दीपक (कहलाने योग्य) होता है। जो (अक्षरात्मक) ध्वनि बनता है, यानी बोलता (या बोला जाता है), वह (ही) शब्द (कहलाता) है। (इसी प्रकार) जो जलाता है, वह दहन (अग्नि) होता है। जो तपता है, वह तपन (सूर्य) होता है। ये (सभी) (किसी न किसी) विशिष्ट क्रिया के कर्तृत्व की प्रधानता वाले 'मन' आदि पदार्थ, पदार्थ-सम्बन्धी मनन, प्रदीपन, भाषण आदि उन (अपनी सम्बद्ध विशिष्ट अर्थक्रिया को ही यदि न करें, तब तो उनके स्वरूप का नाश ही हो जाएगा। इसलिए, जिस प्रकार प्रकाशित होने वाली या शब्द रूप में प्रकट होने वाली वस्तु की अपेक्षा से प्रदीप व शब्द- ये नाम (व्यवहार में) प्रवृत्त (प्रचलित) होते हैं, और (इसलिए) प्रदीप व शब्द द्वारा प्रदीपन न करना तथा शब्द रूप प्रकट न करना युक्तियुक्त नहीं होता, उसी प्रकार 'मन' का 'मन' यह नाम तभी प्रवृत्त होगा जब वह (किसी) मननीय वस्तु का मनन कर रहा हो, और (इसलिए) उसका मनन (ज्ञान) से रहित होना युक्तियुक्त (संगत) नहीं होगा। (शंका-) इससे क्या (सिद्ध हुआ)? उत्तर दिया- (येन एवं, तेन ------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - ---- 357 - - - -