________________ रात्रौ गत्वा वटशाखां भङ्क्त्वावोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा पुनः प्रसुप्तः। 'स्वप्नो दृष्टः' इत्यालोचिते, स्त्यानर्द्धयुदये च ज्ञाते लिङ्गापनयनतः संघेन विसर्जित इति // 5 // एतान्युदाहरणानि विशेषतो निशीथादवसेयानि // इति गाथार्थः॥२३५ // तदेवं 'गंतुं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा' इत्यादिपूर्वपक्षगाथायाः प्रथमार्धमपाकृतम्। सांप्रतं 'सिद्धमियं लोयम्मि वि अमुग्गत्थगओ मणो मे त्ति' एतदुत्तरार्धमपाकुर्वन्नाह जह देहत्थं चक्खं जं पइ चंदं गयं ति, न य सच्चं। रूढं मणसो वि तहान य रूढी सच्चिया सव्वा // 236 // [संस्कृतच्छाया:- यथा देहस्थं चक्षुर्यत् प्रति चन्द्रं गतमिति, न च सत्यम् / रूढं मनसोऽपि तथा, न च रूढिः सत्यका सर्वा ] से गुजरने लगा, (किन्तु उस) वृक्ष की अधिक नीची कोई शाखा (मोटी डाल) उसके माथे सें टकराई। (फलस्वरूप वह) अत्यन्त सन्तप्त (पीड़ित) हुआ। क्रोध की निरन्तरता की स्थिति में ही वह सो गया। (उसके) स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ। उसने (उसी) रात में जाकर वट-शाखा को तोड़ा और उपाश्रय के द्वार पर ही उसे फेंक कर वह पुनः सो (लेट) गया। (प्रातःकाल जागने पर) 'मैंने स्वप्न देखा' -इस प्रकार (गुरुजनों के समक्ष) आलोचना की। संघ को पता चला कि उसके स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ था, तो उससे वेश छीन कर उसे संध से निकाल दिया // 5 // इन उदाहरणों को विशेष रूप से (जानना हो तो) निशीथ सूत्र से जानना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 235 // इस प्रकार 'गत्वा ज्ञेयेन मनः सम्बद्धयते जाग्रतो वा स्वप्ने वा’ –इत्यादि पूर्वपक्ष रूप में कही गाथा (सं. 213) के प्रथम अर्ध भाग का खण्डन कर दिया गया। अब, उसी गाथा के 'सिद्धमिदं लोकेऽपि अमुकार्थगतं मनो मे' इस उत्तरार्ध भाग के निराकरण हेत (भाष्यकार) कह रहे हैं // 236 // जह देहत्थं चक्खं जं पइ चंदं गयं ति, न य सच्चं / रूढं मणसो वि तहा न य रूढी सच्चिया सव्वा // [ (गाथा-अर्थ :) जैसे देह में (ही) स्थित रहने वाली नेत्र इन्द्रिय के विषय में 'यह चन्द्रमा पर गई है' -ऐसा कह दिया जाता है, किन्तु (वह कथन) सत्य (तो) नहीं होता, वैसे ही, मन के विषय में भी (कहा जाता है कि 'मेरा मन वहां गया हुआ है', और यह कथन) रूढ़ि (ही) है, और सभी रूढ़ियां सत्य नहीं हुआ करतीं।] A 346 -------- विशेषावश्यक भाष्य -----