________________ तदेवं प्रकारद्वयेन मनसः परेण व्यञ्जनावग्रहे समर्थिते, आचार्यः प्रथमपक्षे तावत् प्रतिविधानमाह गिज्झस्स वंजणाणं जं गहणं वंजणोग्गहो स मओ। गहणं मणो, न गिझं को भागो वंजणे तस्स?॥२४०॥ [संस्कृतच्छाया:- ग्राह्यस्य व्यञ्जनानां यद् ग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः स मतः / ग्रहणं मनः, न ग्राह्यं, को भागो व्यञ्जने तस्य // ] इह 'विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जइ' इत्यादि यत्परेणोक्तम्, तद् निजाऽसत्पक्ष-परकीयसत्पक्षविषयप्रसर्पन्महारागद्वेषग्रहग्रस्तचेतोविह्वलतासूचकमेवावगन्तव्यम्, असंबद्धत्वात् / , तथाहि- श्रोत्र-घ्राण-रसन-स्पर्शनेन्द्रियचतुष्टयग्राह्यस्य शब्दगन्धादिविषयस्य संबन्धिनां व्यञ्जनानां तद्रूपपरिणतद्रव्याणां यद् ग्रहणमुपादानं स व्यञ्जनावग्रहोऽस्माकं संमत इति परोऽपि जानात्येव, प्रागसकृत्प्रतिपादितत्वादिति। (रहने वाले मन) का भी (व्यअनावग्रह) होता है, इसमें समर्थित युक्ति के अनुरूप / (प्रश्न-) क्या होता है? उत्तर दिया- (व्यअनम्)। अर्थात् व्यअनावग्रह। इस ‘प्राप्यकारिता' का निरूपण करने वाली इस युक्ति के अनुसार भी। (से) उस मन का व्यञ्जनावग्रह घटित होना युक्तियुक्त (सिद्ध होता) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 239 // इस प्रकार दो तरीकों (कथन-रीतियों) से पूर्वपक्ष द्वारा मन के व्यञ्जनावग्रह का समर्थन किये जाने के बाद, अब आचार्य (भाष्यकार) (पूर्वपक्ष के) प्रथम पक्ष का (निराकरण करने हेतु) उत्तर दे रहे हैं // 240 // गिज्झस्स वंजणाणं जंगहणं वंजणोग्गहो स मओ। गहणं मणो, न गिज्झं को भागो वंजणे तस्स? | [(गाथा-अर्थ :) ग्राह्य (शब्द आदि) के व्यञ्जनों के ग्रहण को व्यञ्जनावग्रह के रूप में हम मानते (ही) हैं। किन्तु मन ‘ग्रहण' (अर्थग्रहण का साधन, कारण) है, ग्राह्य (विषय) नहीं। (अतः) व्यञ्जनावग्रह के संदर्भ में उस (ग्रहण-भूत मनोद्रव्य) का क्या कोई भाग (औचित्यपूर्ण सहभागिता, या निमित्तपना) है? (अर्थात् नहीं है।)] ___व्याख्याः- यहां (प्रस्तुत प्रकरण में) (पूर्वोक्त गाथा- 237 में पूर्वपक्ष द्वारा 'विषय के साथ अस्पृष्ट रहने वाले मन का भी (व्यञ्जनावग्रह) होता है' -इत्यादि कथन किया गया था, उसे अपने असमीचीन पक्ष के प्रति महाराग (दुराग्रह) तथा दूसरे (विरोधी) के समीचीन पक्ष के प्रति द्वेष की भावना से ग्रस्त चित्त की विह्वलता का सूचक ही (है- ऐसा) समझना चाहिए क्योंकि (उसका वह कथन) असम्बद्ध (अप्रासंगिक) है। और, श्रोत्र-रसना-स्पर्शन (त्वचा) -इन चार इन्द्रियों के शब्द, गन्ध आदि ग्राह्य विषयों से सम्बन्धित व्यञ्जनों का -यानी तद्रूपपरिणत द्रव्यों का -जो ग्रहण या उपादान है, वह व्यअनावग्रह है- इसे हम स्वीकारते हैं, इसे (पूर्वपक्ष) भी जानता ही है, क्योंकि हमने अनेक बार इसका प्रतिपादन किया है। Na 350 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------