________________ किञ्च, . सुरयपडिवत्ति-रइसुह-गब्भाहाणाइ इहरहा होज्जा। सुमिणसमागमजुवईए, न यजओ ताई तो विफला॥२३०॥ [संस्कृतच्छाया:- सुरतप्रतिपत्ति-रतिसुख-गर्भाधानादि इतरथा भवेत्। स्वप्नसमागम-युवते: न च यतस्तान्यतो विफला॥] इतरथा- स्वप्ने सुरतक्रियया योऽसौ व्यञ्जनविसर्गः स यदि योषित्प्राप्त्यव्यभिचारी स्यात्, तदा सुरतोपभुक्तयुवतेरपि 'सुरतक्रियाऽमुकेन सह मयाऽनुभूता' इत्येवंरूपा सुरतप्रतिपत्तिः स्यात्, तथा, रतिसुखं, गर्भाऽऽधानादिकं च भवेत्; आदिशब्दादुदरवृद्धिदोहद-पुत्रजन्मादिपरिग्रहः। यतश्च नैतानि तस्याः समुपलभ्यन्ते, अतो विफलैव सा स्वप्नसुरतक्रिया, विशिष्ट स्य परिभुक्तकामिनीगर्भाधानादिफलस्याभावात्। संयोग-क्रिया में किये हुए तथा स्वप्न में अनुभूत नख-दन्त के चिन्ह दिखाई पड़ने चाहिएं। किन्तु ऐसा होता नहीं (वे चिन्ह दिखाई नहीं पड़ते, और न ही कोई कामिनी निकटस्थ दिखाई पड़ती है)। इसलिए (वीर्य-क्षरण रूप) हेतु (स्त्री-स्पर्श के बिना भी उपलब्ध होने से) अनैकान्तिक दोष से दूषित है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 229 // - और // 230 // सुरयपडिवत्ति-रइसुह-गब्भाहाणाइ इहरहा होज्जा। सुमिणसमागमजुवईए, न यजओ ताईतो विफला // [(गाथा-अर्थ :) अन्यथा (यदि स्त्री-स्पर्शादि से ही वीर्य-क्षरण होना आदि मानें तो) स्वप्न में जिस युवती से समागम (रति-सुख) अनुभूत होता है, उसी से सुरत-क्रिया की प्रतिपत्ति (समग्रतः' पूर्णता), रति-सुख व गर्भाधान आदि भी होने चाहिएं, किन्तु वे (सब) नहीं होते, अतः (स्वप्न की सुरत-क्रिया) विफल रहती है, अर्थात् उसका कोई फल या परिणाम होता ही नहीं।] व्याख्याः- (इतरथा) स्वप्न में सुरत-क्रिया से जो वीर्य-क्षरण होता है, उसे यदि स्त्री-स्पर्श के साथ अव्यभिचरित माना जाय (बिना स्त्री-स्पर्श के वीर्यक्षरण होना न माना जाय) तो सुरत-क्रिया में उपभुक्त होने वाली युवती से सम्बद्ध 'अमुक (स्त्री) के साथ मैंने रति-क्रिया का अनुभव किया है', इस प्रकार की सुरत-प्रतिपत्ति (समस्त दृष्टियों से पूर्णता) भी होनी चाहिए, तथा रति-सुख, गर्भाधान . आदि भी होने चाहिएं। 'आदि' पद से (गर्भाधान से) पेट का बढ जाना, दोहद (विशेष आहारादिअभिलाषा), पुत्र-जन्म आदि का ग्रहण अभीष्ट है। चूंकि (स्त्री-सम्बन्धी) ये (उक्त) चिन्ह उपलब्ध नहीं होते, अतः स्वप्नगत सुरत-क्रिया फलहीन ही है, क्योंकि उपभोग की गई कामिनी तथा उसमें होने वाले गर्भाधान आदि विशिष्ट फल उपलब्ध नहीं होते। ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 337