________________ सदसदविसेसणाओ भवहेउ-जदिच्छिओवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिट्ठिस्स अण्णाणं // 115 // [संस्कृतच्छाया:- सद्-असद्-अविशेषणाद् भवहेतु-यदृच्छोपलम्भात् / ज्ञानफलाभावाद् मिथ्यादृष्टे: अज्ञानम्॥] सच्चाऽसच्च सद-सती तयोरविशेषणमविशेषस्तस्माद् हेतोः, मिथ्यादृष्टेः संबन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञानमुच्यते, सतो ह्यसत्त्वेनाऽसद् विशिष्यते, असतोऽपि च सत्त्वेन सद् भिद्यते। मिथ्यादृष्टिश्च घटे सत्त्व-प्रमेयत्व-मूर्तत्वादीन्, स्तम्भरम्भाऽम्भोरुहादिव्यावृत्त्यादींश्च पटादिधर्मान् सतोऽप्यसत्त्वेन प्रतिपद्यते, 'सर्वप्रकारैर्घट एवायम्' इत्यवधारणात् / अनेन ह्यवधारणेन सन्तोऽपि सत्त्व-प्रमेयत्वादयः पटादिधर्मा न सन्तीति प्रतिपद्यते, अन्यथा सत्त्व-प्रमेयत्वादिसामान्यधर्मद्वारेण घटे पटादीनामपि सद्भावात् 'सर्वथा घट एवायम्' इत्यवधारणानुपपत्तेः, कथञ्चिद् घट एवाऽयम्' इत्यवधारणे त्वनेकान्तवादाभ्युपगमेन सम्यग्दृष्टित्वप्रसङ्गात्, (115) सदसदविसेसणाओ भवहेउ-जदिच्छिओवलम्भाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छद्दिहिस्स अण्णाणं // [(गाथा-अर्थः) (चूंकि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान) सत्-असत् के विवेक से रहित है, भव (-भ्रमण) का हेतु है, स्वतन्त्र (निरंकुश, अमर्यादित) प्रवृत्ति वाला है, और ज्ञान के (पारमार्थिक) फल से रहित है, इसलिए मिथ्यादृष्टि का (ज्ञान) अज्ञान (रूप ही) है।] व्याख्याः- चूंकि मिथ्यादृष्टि सत् व असत् में भेदरूप विवेक नहीं रखता, इस कारण से उसका बोध 'व्यवहार' दृष्टि से ज्ञान कहलाता हुआ भी 'निश्चय' (पारमार्थिक) दृष्टि से 'अज्ञान' ही कहा जाता है, (क्योंकि) वह (कभी-कभी) सत् को भी असत् रूप से और असत् को भी, सत् रूप से विवेक कर लेता है। जैसे- मिथ्यादृष्टि व्यक्ति घट में सत्त्व, प्रमेयत्व, मूर्तत्व आदि धर्मों को, तथा स्तम्भ, रम्भा, कमल आदि से व्यावृत्ति (भेद) कराने वाले- अस्तम्भत्व, अकमलत्व आदि अनन्त धर्म जो पट में हैं, वे ही घट में भी हैं, उन धर्मों को असत् रूप मानता है। (घट में घट के अपने विशेष धर्म तो हैं ही, किन्तु सत्त्व, प्रमेयत्व आदि धर्म, जो पट आदि में है और वे घट में भी हैं।) इसी प्रकार, घट में स्व-द्रव्य की दृष्टि से अस्तित्व धर्म है तो पर-द्रव्य की दृष्टि से 'नास्तित्व' धर्म भी है, किन्तु मिथ्यादृष्टि (अनेकान्तवाद व स्याद्वाद से अपरिचित होता है, या श्रद्धारहित होता है, इसलिए) घट को 'सर्वथा घट है ही' इस रूप में, 'एकान्त' दृष्टि से मन में निश्चित करता है (अर्थात् जानता है समझता है, और तदनुरुप व्यवहार भी करता है)। इस (एकान्त) रूप में किये गए ‘अवधारण' से सत्त्व, प्रमेयत्व रूप पट आदिगत धर्मों का- जो घट में भी हैं- अभाव मानता है। यदि वह घट में सत्त्व, प्रमेयत्व आदि सर्वसामान्य धर्मों के रूप में सद्भाव मान रहा होता, तो उसे 'सर्वथा घट ही है' यह निश्चय नहीं हो सकता था, किन्तु यदि वह (उक्त घटादिगत धर्मों का घट में अस्तित्व मान रहा हो और फलस्वरूप 'यह घट कथंचित् है' (स्यात् अस्ति घटः) इस रूप में जान रहा हो, तब उसे, अनेकान्तवाद Via ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 183 2