________________ [संस्कृतच्छाया:-न परप्रबोधके यद् द्वे अपि स्वरूपतो मति-श्रुते / तत्कारणानि द्वयोरपि बोधयन्ति ततो न भेदोऽनयोः॥] * मतिहेतूनामपि परप्रबोधकत्वे सति 'न भेओ सिं' अनयोर्मति-श्रुतयोर्न भेदः। कुतः? इत्याह- 'तउ त्ति' ततस्तस्मात् कारणात्। कस्मात्? इत्याह- यद् यस्माद् द्वे अप्येते मति-श्रुते स्वरूपतो विज्ञानाऽऽत्मना न परप्रबोधके, विज्ञानस्य मूकत्वेन परप्रबोधकत्वायोगात्, अवध्यादिवदिति। अथ श्रुतस्य यत् कारणं शब्दादिकं तत् परप्रबोधकम्, इत्येतावता मतिज्ञानाद् विशिष्यते श्रुतज्ञानम्। नन्वेतद् मतिज्ञानेऽपि समानम्, तत्कारणस्याऽपि करचेष्टादेः परावबोधकत्वादिति। एतदेवाह- तानि च तानि पूर्वोक्तरूपाणि कारणानि च तत्कारणानि द्वयोरपि मति-श्रुतज्ञानयोर्यथासंख्यं शब्दादीनि, करचेष्टादीनि च परं बोधयन्त्येव, इति कोऽनयोर्विशेषः?, न कश्चिदित्यर्थः। इति किमुच्यते- मूकेतरभेदाद् भेदः? // इति गाथार्थः // 173 // तदेवं परोक्ते व्यभिचारिते ततो निरुत्तरं विलक्षीभूतं तूष्णीम्भावमापन्नं परमवलोक्य संजातकारुण्यः स्वयमेव सूरिरुत्तरमाह . [(गाथा-अर्थ :) चूंकि स्वरूपतः मति व श्रुत -ये पर-प्रबोधक नहीं हैं, इन दोनों के कारण (शब्द व करचेष्टा आदि) पर-प्रबोधक हैं, अतः इनमें परस्पर भेद नहीं है।] व्याख्याः - इस प्रकार जब मति (ज्ञान) के हेतु भी पर-प्रबोधक हैं (दूसरों को बोध कराते हैं) तो फिर इन मति व श्रुत में (कोई) भेद नहीं रहा। क्यों? उत्तर दिया (ततः)। इसी कारण से। किस कारण से? (यद् द्वे अपि) चूंकि दोनों ही ये मति व श्रुत स्वरूपतः, विज्ञानरूप से पर-प्रबोधक नहीं हैं, क्योंकि विज्ञान तो 'मूक' होता है, उसमें पर-प्रबोधक होने की क्षमता नहीं होती, अवधि आदि ज्ञान की तरह। - यदि ऐसा कहो कि 'श्रुत' का कारण जो 'शब्द' आदि है, वह पर-प्रबोधक है, इसलिए वह 'श्रुतज्ञान' 'मतिज्ञान' से विशिष्ट (भिन्न) है, तो (भी मतिज्ञान से भेद सिद्ध नहीं होता, क्योंकि) यह समानता तो मतिज्ञान में भी है, क्योंकि मतिज्ञान के कारणभूत करचेष्टा आदि भी पर-प्रबोधक हैं। इसी तथ्य को कहा- (तत्कारणानि)। (मति व श्रुत के) पूर्वोक्त वे वे कारण, जैसे मति व श्रुत ज्ञान के क्रमशः कारण कर चेष्टा व शब्द आदि, पर-प्रबोधक हैं ही, इस प्रकार इन दोनों में फिर भेद क्या रहा? अर्थात् कोई भेद नहीं रहा -यह तात्पर्य है। इसलिए आप यह कैसे कह सकते हैं कि इन दोनों में मूक व अमूक -इस प्रकार भेद है? | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 173 // ___इस प्रकार, परकीय कथन में व्यभिचार-दोष बताया गया तो वादी निरुत्तर, हक्काबक्का और चुप हो गया। ऐसे वादी (की दयनीय दशा) को देखकर करुणायुक्त होते हुए आचार्य स्वयं उत्तर (समाधान) प्रस्तुत कर रहे हैं ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------253 2