________________ अथ स्याद् बुद्धिः परस्य-सर्वगत आत्मा, न तु देहमात्रव्यापी, अमूर्तत्वात्, आकाशवदिति / अत्र गुरुराह- तदेतन्न / कुतः?, इत्याह- भावप्रधानत्वानिर्देशस्य कर्तृत्वाभावादिदोषत इति- सर्वगतत्वे सत्यात्मनः कर्तृत्वादयो गोपाङ्गनादिप्रतीता अपि धर्मा न घटेरन्निति भावः। तथाहि- न कर्ताऽऽत्मा, सर्वगतत्वात्, आकाशवत्। आदिशब्दादभोक्ता, असंसारी, अज्ञः, न सुखी, न दुःखी आत्मा, तत एव हेतोः, तद्वदेव, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्॥ आह पर:- नन्वात्मनो निष्क्रियत्वात् कर्तृत्वाद्यभावः सांख्यानां न बाधायै कल्पते। तथा च तैरुक्तम्- 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ताऽऽत्मा' इत्यादि। एतदप्ययुक्तम्, तस्य निष्क्रियत्वे प्रत्यक्षादिप्रमाणोपलब्धभोक्तृत्वादिक्रियाविरोधप्रसङ्गात्। प्रकृतेरेव भोगादिकरणक्रिया, न पुरुषस्य, आदर्शप्रतिबिम्बोदयन्यायेनैव तत्र क्रियाणामिष्टत्वादिति चेत् / एतदप्यसङ्गतम्, प्रकृतेरचेतनत्वात्, 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्' इति वचनात्; अचेतनस्य च भोगादिक्रियाऽयोगात्, अन्यथा घटादीनामपि तत्प्रसङ्गादिति। न केवलं कर्तृत्वाद्यभावतः सर्वगतत्वमात्मनो न युक्तम्, किन्तु सर्वाऽसर्वग्रहणप्रसङ्गतोऽपि च तदसङ्गतम्। होगा। इसी तरह या तो सर्वपदार्थों का ग्रहण होना (सर्वज्ञता होना) यह फिर सभी का अग्रहण होना (अर्थात् किसी का भी ग्रहण न होना) इत्यादि (अनेक) दोष भी सम्भावित हैं।] व्याख्याः- ऐसा भी हो सकता है कि पूर्वपक्षी की यह मान्यता हो कि 'आत्मा देहमात्रव्यापक नहीं, अपितु सर्वव्यापी है, क्योंकि वह अमूर्त है, आकाश की तरह'। इस सम्बन्ध में गुरुवर (भाष्यकार) ने कहा- (तद् न)। ऐसी मान्यता (समीचीन) नहीं। (प्रश्न-) क्यों (समीचीन नहीं)? उत्तर दिया- (कर्तृत्वाभावादिदोषतः)। निर्देश भावप्रधान होता है (अतः आत्मा सर्वव्यापी है- इसका तात्पर्य है कि आत्मा में 'सर्वव्यापकता' है। वह इसलिए युक्तियुक्त नहीं, क्योंकि कर्तृत्व-अभावादि दोष प्रसक्त होते है)। तात्पर्य यह है कि आत्मा में सर्वव्यापकता मानने पर ग्वाल बाल, वनिता आदि को भी जो कर्तृत्व (भोक्तृत्व आदि) भाव प्रतीत (अनुभवसिद्ध) हैं, वे (सर्वव्यापकता के मानने पर) युक्तिसंगत नहीं होंगे। जैसे- आत्मा कर्ता नहीं है, सर्वव्यापी होने से, आकाश की तरह। 'आदि' शब्द से (यह भी संकेतित है कि) आत्मा अभोक्ता, असंसारी, अज्ञ, न सुखी और न दुःखी है, उसी हेतु * (सर्वव्यापकता) के आधार पर, उसी (आकाश) की तरह- इत्यादि कथन भी समझ लेना चाहिए। . अब पूर्वपक्षी (शंका के रूप में) कह रहा है- सांख्य दर्शन के अनुयायी तो आत्मा (पुरुष) को निष्क्रिय मानते हैं, अतः (उनके मत में तो) कर्तृत्व (व भोक्तृत्व) आदि का अभाव होना कोई बाधा (दोष-आपत्ति) नहीं खड़ा करता। उन्होंने कहा भी है- 'आत्मा अकर्ता व निर्गुण है' इत्यादि। (पूर्वपक्ष का भाष्यकार द्वारा खण्डन-) पूर्वोक्त कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से भोक्तृत्व आदि क्रिया का सद्भाव (ही) सिद्ध होता है, अतः उस (आत्मा) को निष्क्रिय मानने पर उस (प्रत्यक्षादि अनुभव) से विरोध की स्थिति आ खड़ी होगी। (सांख्यमतानुयायी पूर्वपक्ष का पुनः कथन) भोक्तृत्व आदि क्रिया प्रकृति (तत्त्व) में है, न कि पुरुष में। जिस तरह दर्पण में (किसी के) प्रतिबिम्ब का उदय होता है, उसी रीति से पुरुष में 'क्रिया' का होना (सांख्यों को) अभीष्ट है (अतः पुरुष में निष्क्रियता व अभोक्तृता होने पर भी व्यावहारिक दृष्टि से भोक्तृत्व आदि क्रिया के सद्भाव की संगति a ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------315